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*कुम्भनदास के पदों की कुल संख्या जो 'राग-कल्पद्रुम' 'राग-रत्नाकर' तथा सम्प्रदाय के कीर्तन-संग्रहों में मिलते हैं, 500 के लगभग हैं। इन पदों की संख्या अधिक है।  
 
*कुम्भनदास के पदों की कुल संख्या जो 'राग-कल्पद्रुम' 'राग-रत्नाकर' तथा सम्प्रदाय के कीर्तन-संग्रहों में मिलते हैं, 500 के लगभग हैं। इन पदों की संख्या अधिक है।  
*[[कृष्ण जन्माष्टमी|जन्माष्टमी]], राधा की बधाई, पालना, [[धनतेरस |धनतेरस]], गोवर्द्धनपूजा, इन्हद्रमानभंग, संक्रान्ति, मल्हार, रथयात्रा, हिंडोला, पवित्रा, राखी वसन्त, धमार आदि के पद इसी प्रकार के है।
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*[[कृष्ण जन्माष्टमी|जन्माष्टमी]], राधा की बधाई, पालना, [[धनतेरस |धनतेरस]], गोवर्धनपूजा, इन्हद्रमानभंग, संक्रान्ति, मल्हार, रथयात्रा, हिंडोला, पवित्रा, राखी वसन्त, धमार आदि के पद इसी प्रकार के है।
 
*कृष्णलीला से सम्बद्ध प्रसंगों में कुम्भनदास ने गोचार, छाप, भोज, बीरी, राजभोग, शयन आदि के पद रचे हैं जो नित्यसेवा से सम्बद्ध हैं।   
 
*कृष्णलीला से सम्बद्ध प्रसंगों में कुम्भनदास ने गोचार, छाप, भोज, बीरी, राजभोग, शयन आदि के पद रचे हैं जो नित्यसेवा से सम्बद्ध हैं।   
 
*इनके अतिरिक्त प्रभुरूप वर्णन, स्वामिनी रूप वर्णन, दान, मान, आसक्ति, सुरति, सुरतान्त, खण्डिता, विरह, [[मुरली]] [[रुक्मिणीहरण]] आदि विषयों से सम्बद्ध श्रृंगार के पद भी है।
 
*इनके अतिरिक्त प्रभुरूप वर्णन, स्वामिनी रूप वर्णन, दान, मान, आसक्ति, सुरति, सुरतान्त, खण्डिता, विरह, [[मुरली]] [[रुक्मिणीहरण]] आदि विषयों से सम्बद्ध श्रृंगार के पद भी है।

01:23, 24 मार्च 2018 के समय का अवतरण

कुम्भनदास
कुम्भनदास
पूरा नाम कुम्भनदास
जन्म संवत 1525 विक्रमी (1468 ई.)
जन्म भूमि जमुनावतो ग्राम, गोवर्धन, मथुरा
मृत्यु संवत 1639 विक्रमी (1582)
मृत्यु स्थान गोवर्धन
संतान सात पुत्र
कर्म भूमि मथुरा
मुख्य रचनाएँ कुम्भनदास के पदों की कुल संख्या, जो 'राग-कल्पद्रुम', 'राग-रत्नाकर' तथा सम्प्रदाय के कीर्तन-संग्रहों में मिलते हैं, 500 के लगभग हैं।
भाषा ब्रजभाषा
प्रसिद्धि अष्टछाप के कवि तथा श्रीनाथ जी के सेवक।
नागरिकता भारतीय
संबंधित लेख अष्टछाप कवि, वल्लभाचार्य, श्रीकृष्ण, गोवर्धन, मथुरा
दीक्षा गुरु वल्लभाचार्य
अन्य जानकारी कुम्भनदास भगवत्कृपा को ही सर्वोपरि मानते थे, बड़े-से-बड़े घरेलू संकट में भी वे अपने आस्था-पथ से कभी विचलित नहीं हुए। श्रीनाथ जी के श्रृंगार सम्बन्धीे पदों की रचना में उनकी विशेष अभिरुचि थी।

कुम्भनदास अष्टछाप के कवि और परमानंद दास के समकालीन थे। ये पूरे विरक्त और धन, मान, मर्यादा की इच्छा से कोसों दूर थे। ये मूलत: किसान थे। 'अष्टछाप' के कवियों में सबसे पहले कुम्भनदास ने महाप्रभु वल्लभाचार्य से दीक्षा ली थी। 'पुष्टिमार्ग' में दीक्षित होने के बाद ये श्रीनाथ जी के मंदिर में कीर्तन किया करते थे। ये किसी से दान नहीं लेते थे। इन्हें मधुरभाव की भक्ति प्रिय थी और इनके रचे हुए लगभग 500 पद उपलब्ध हैं।

परिचय

अनुमानत: कुम्भनदास जी का जन्म गोवर्धन, मथुरा के सन्निकट जमुनावतो नामक ग्राम में संवत 1525 विक्रमी (1468 ई.) में चैत्र कृष्ण एकादशी को हुआ था। वे गोरवा क्षत्रिय थे। उनके पिता एक साधारण श्रेणी के व्यक्ति थे। खेती करके जीविका चलाते थे। कुम्भनदास ने भी पैतृक वृत्ति में ही आस्था रखी और किसानी का जीवन ही उन्हें अच्छा लगा। पारसोली में विशेष रूप से खेती का कार्य चलता था। उन्हें पैसे का अभाव आजीवन खटकता रहा, पर उन्होंने किसी के सामने हाथ नहीं पसारा। भगवद्भक्ति ही उनकी सम्पत्ति थी। उनका कुटुम्ब बहुत बड़ा था, खेती की आय से उसका पालन करते थे। परिवार में इनकी पत्नी के अतिरिक्त सात पुत्र, सात पुत्र-वधुएँ और एक विधवा भतीजी थी।

दीक्षा

कुम्भनदास परम भगवद्भक्त, आदर्श गृहस्थ और महान विरक्त थे। वे नि:स्पृत, त्यागी और महासन्तोषी व्यक्ति थे। उनके चरित्र की विशिष्ट, अलौकिकता यह थी कि भगवान साक्षात प्रकट होकर उनके साथ सखा भाव की क्रीड़ाएं करते थे। महाप्रभु वल्लभाचार्य जी उनके दीक्षा-गुरु थे। संवत 1550 विक्रमी (1493 ई.) में आचार्य की गोवर्धन यात्रा के समय उन्होंने ब्रह्मसम्बन्ध लिया था। उनके दीक्षा-काल के पंद्रह साल पूर्व श्रीनाथ जी की मूर्ति प्रकट हुई थी, आचार्य की आज्ञा से वे श्रीनाथ जी की सेवा करने लगे थे। 'पुष्टिमार्ग' में दीक्षित तथा श्रीनाथ जी के मन्दिर में कीर्तनकार के पद पर नियुक्त होने पर भी उन्होंने अपनी वृत्ति नहीं छोड़ी और अन्त तक निर्धनावस्था में अपने परिवार का भरण-पोषण करते रहे।

श्रीनाथ जी की सेवा व गायन

श्रीनाथ जी के मन्दिर में कुम्भनदास नित्य नये पद गाकर सुनाने लगे। 'पुष्टि सम्प्रदाय' में सम्मिलित होने पर उन्हेंं कीर्तन की ही सेवा दी गयी थी। कुम्भनदास भगवत्कृपा को ही सर्वोपरि मानते थे, बड़े-से-बड़े घरेलू संकट में भी वे अपने आस्था-पथ से कभी विचलित नहीं हुए। श्रीनाथ जी के श्रृंगार सम्बन्धीे पदों की रचना में उनकी विशेष अभिरुचि थी। एक बार वल्लभाचार्य जी ने उनके युगल लीला सम्बन्धी पद से प्रसन्न होकर कहा था कि- "तुम्हें तो निकुंज लीला के रस की अनुभूति हो गयी।" कुम्भनदास महाप्रभु की कृपा से गद्गद होकर बोल उठे कि- "मुझे तो इसी रस की नितान्त आवश्यकता है।"

महाप्रभु वल्लभाचार्य के लीला-प्रवेश के बाद कुम्भनदास गोसाईं विट्टलनाथ के संरक्षण में रहकर भगवान का लीला-गान करने लगे। विट्ठलनाथ महाराज की उन पर बड़ी कृपा थी। वे मन-ही-मन उनके निर्लोभ जीवन की सराहना किया करते थे। संवत 1602 विक्रमी में 'अष्टछाप के कवियों' में उनकी गणना हुई। बड़े-बड़े राजा-महाराजा आदि कुम्भनदास का दर्शन करने में अपना सौभाग्य मानते थे। वृन्दावन के बड़े-बड़े रसिक और सन्त महात्मा उनके सत्संग की उत्कृष्ट इच्छा किया करते थे। उन्होंने भगवद्भक्ति का यश सदा अक्षुण्ण रखा, आर्थिक संकट और दीनता से उसे कभी कलंकित नहीं होने दिया।

भगवान श्रीनाथ से स्नेह

एक बार श्रीविट्ठलनाथ जी उन्हें अपनी द्वारका यात्रा में साथ ले जाना चाहते थे, उनका विचार था कि वैष्णवों की भेंट से उनकी आर्थिक परिस्थिति सुधर जायगी। कुम्भनदास श्रीनाथ जी का वियोग एक पल के लिये भी नहीं सह सकते थे, पर उन्होंने गोसाईं जी की आज्ञा का विरोध नहीं किया। वे गोसाईं जी के साथ अप्सरा कुण्ड तक ही गये थे कि श्रीनाथ जी के सौंदर्य स्मरण से उनके अंग-अंग सिहर उठे, भगवान की मधुर-मधुर मन्द मुस्कान की ज्योत्स्ना विरह-अन्धकार में थिरक उठी, माधुर्यसम्राट नन्दनन्दन की विरह वेदना से उनका हृदय घायल हो चला। उन्होंने श्रीनाथ जी के वियोग में एक पद गाया-

केते दिन जु गए बिनु देखैं।
तरुन किसोर रसिक नँदनंदन, कछुक उठति मुख रेखैं।।
वह सोभा, वह कांति बदन की, कोटिक चंद बिसेखैं।
वह चितवन, वह हास मनोहर, वह नटवर बपु भेखैं।।
स्याम सुँदर सँग मिलि खेलन की आवति हिये अपेखैं।
‘कुंभनदास’ लाल गिरिधर बिनु जीवन जनम अलेखैं।।

श्रीगोसाईं जी के हृदय पर उनके इस विरह गीत का बड़ा प्रभाव पड़ा। वे नहीं चाहते थे कि कुम्भनदास पल भर के लिये भी श्रीनाथ जी से अलग रहें। कुम्भनदास को उन्होंने लौटा दिया। श्रीनाथ जी का दर्शन करके कुम्भनदास स्वस्थ हुए।

अकबर के समक्ष गायन

एक बार मुग़ल बादशाह अकबर की राजसभा में एक गायक ने कुम्भनदास का पद गाया। बादशाह ने उस पद से आकृष्ट होकर कुम्भनदास को फ़तेहपुर सीकरी बुलाया। पहले तो कुम्भनदास जाना नहीं चाहते थे, पर सैनिक और दूतों का विशेष आग्रह देखकर वे पैदल ही गये। श्रीनाथ जी के सभा सदस्य को अकबर का ऐश्वर्य दो कौड़ी का लगा। कुम्भनदास की पगड़ी फटी हुई थी, तनिया मैली थी, वे आत्मोग्लािनि में डूब रहे थे कि किस पाप के फलस्वरूप उन्हें इनके सामने उपस्थित होना पड़ा। बादशाह ने उनकी बड़ी आवभगत की, पर कुम्भनदास को तो ऐसा लगा कि किसी ने उनको नरक में लाकर खड़ा कर दिया है। वे सोचने लगे कि राजसभा से तो कहीं उत्तम ब्रज है, जिसमें स्वयं श्रीनाथ जी खेलते रहते हैं, अनेकों क्रीड़ाएं करते रहते हैं। अकबर ने पद गाने की प्रार्थना की। कुम्भनदास तो भगवान श्रीकृष्ण के ऐश्वर्य-माधुर्य के कवि थे, उन्होंने पद-गान किया-

भगत को कहा सीकरी काम।
आवत जात पन्हैयां टूटीं, बिसरि गयो हरिनाम।।
जाको मुख देखैं दुख लागै, ताको करनो पर्‌यो प्रनाम।
‘कुंभनदास’ लाल गिरिधर बिनु और सबै बेकाम।।

बादशाह सहृदय थे, उन्होंने आदरपूर्वक उनको घर भेज दिया।

मानसिंह द्वारा सराहना

संवत 1620 विक्रमी में महाराज मानसिंह ब्रज आये थे। उन्होंने वृन्दावन के दर्शन के बाद गोवर्धन की यात्रा की। श्रीनाथ जी के दर्शन किये। उस समय मृदंग और वीणा के साथ कुम्भनदास जी कीर्तन कर रहे थे। राजा मानसिंह उनकी पद-गान शैली से बहुत प्रभावित हुए। वे उनसे मिलने जमुनावतो गये। कुम्भनदास की दीन-हीन दशा देखकर वे चकित हो उठे। कुम्भनदास भगवान के रूप-चिन्तन में ध्यानस्थ थे। आंख खुलने पर उन्होंने भतीजी से आसन और दर्पण मांगे, उत्तर मिला कि ‘आसन (घास) पड़िया खा गयी, दर्पण (पानी) भी पी गयी।'

आशय यह था कि पानी में मुख देखकर वे तिलक करते थे। महाराजा मानसिंह को उनकी निर्धनता का पता लग गया। उन्होंने सोने का दर्पण देना चाहा, भगवान के भक्त ने अस्वीकार कर दिया, मोहरों की थैली देनी चाही, विश्वपति के सेवक ने उसकी उपेक्षा कर दी। चलते समय मानसिंह ने जमनुवतो गांव कुम्भनदास के नाम करना चाहा, पर उन्होंने कहा कि "मेरा काम तो करील के पेड़ और बेर के वृक्ष से ही चल जाता है।" राजा मानसिंह ने उनकी नि:स्पृहता और त्‍याग की सराहना की, उन्होंने कहा कि "माया के भक्त तो मैंने बहुत देखे हैं, पर वास्तविक भगवद्भक्त तो आप ही हैं।"

शरीर त्याग

वृद्धावस्था में भी कुम्भनदास नित्य जमुनावतो से श्रीनाथ जी के दर्शन के लिये गोवर्धन आया करते थे। एक दिन संकर्षण कुण्डी पर आन्योदर के निकट वे ठहर गये। 'अष्टछाप' के प्रसिद्ध कवि चतुर्भुजदास जी, उनके छोटे पुत्र साथ थे। उन्होंने चतुर्भुजदास से कहा कि "अब घर चलकर क्या करना है। कुछ समय बाद शरीर ही छूटने वाला है।" गोसाईं विट्ठलनाथ जी उनके देहावसान के समय उपस्थित थे। गोसाईं जी ने पूछा कि "इस समय मन किस लीला में लगा है?" कुम्भनदास ने कहा- लाल तेरी चितवन चितहि चुरावै और इसके अनन्तर युगल स्वरूप की छवि के ध्यान में पद गाया-

"रसिकनी रस में रहत गड़ी।
कनक बेलि बृषभानुनंदिनी स्याम तमाल चढ़ी।।
बिहरत श्रीगिरिधरन लाल सँग, कोने पाठ पढ़ी।
‘कुंभनदास’ प्रभु गोबरधनधर रति रस केलि बढ़ी।।"

उन्होंंने शरीर छोड़ दिया। गोसाईं जी ने करुण स्वर से श्रद्धांजलि अर्पित की कि ऐसे भगवदीय अन्तर्धान हो गये। अब पृथ्वी पर सच्चे भगवद्भक्तों का तिरोधान होने लगा है। वास्तव में कुम्भनदास जी नि:स्पृहता के प्रतीक थे, त्याग और तपस्या के आदर्श थे, परम भगवदीय और सीधे-सादे गृहस्थ थे। संवत 1639 विक्रमी तक वे एक सौ तेरह साल की उम्र पर्यन्त जीवित रहे।

रचनायें

  • कुम्भनदास के पदों की कुल संख्या जो 'राग-कल्पद्रुम' 'राग-रत्नाकर' तथा सम्प्रदाय के कीर्तन-संग्रहों में मिलते हैं, 500 के लगभग हैं। इन पदों की संख्या अधिक है।
  • जन्माष्टमी, राधा की बधाई, पालना, धनतेरस, गोवर्धनपूजा, इन्हद्रमानभंग, संक्रान्ति, मल्हार, रथयात्रा, हिंडोला, पवित्रा, राखी वसन्त, धमार आदि के पद इसी प्रकार के है।
  • कृष्णलीला से सम्बद्ध प्रसंगों में कुम्भनदास ने गोचार, छाप, भोज, बीरी, राजभोग, शयन आदि के पद रचे हैं जो नित्यसेवा से सम्बद्ध हैं।
  • इनके अतिरिक्त प्रभुरूप वर्णन, स्वामिनी रूप वर्णन, दान, मान, आसक्ति, सुरति, सुरतान्त, खण्डिता, विरह, मुरली रुक्मिणीहरण आदि विषयों से सम्बद्ध श्रृंगार के पद भी है।
  • कुम्भनदास ने गुरुभक्ति और गुरु के परिजनों के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए भी अनेक पदों की रचना की। आचार्य जी की बधाई, गुसाईं जी की बधाई, गुसाईं जी के पालना आदि विषयों से सम्बद्ध पर इसी प्रकार के हैं। कुम्भनदास के पदों के उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट है कि इनका दृष्टिकोण सूर और परमानन्द की अपेक्षा अधिक साम्प्रदायिक था। कवित्त की दृष्टि से इनकी रचना में कोई मौलिक विशेषताएँ नहीं हैं। उसे हम सूर का अनुकरण मात्र मान सकते हैं।
  • कुम्भनदास के पदों का एक संग्रह 'कुम्भनदास' शीर्षक से श्रीविद्या विभाग, कांकरोली द्वारा प्रकाशित हुआ है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

[सहायक ग्रन्थ-

  1. चौरासी वैष्णवन की वार्ता;
  2. अष्टछाप और वल्लभ सम्प्रदाय: डा. दीनदयाल गुप्त:
  3. अष्टछाप परिचय: श्रीप्रभुदयाल मीतल।]

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