गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-7 : अध्याय 10
प्रवचन : 4
न सुखी होने का अभिमान, न दुःखी होने का अभिमान। न कुलीनता का अभिमान, न मृत्यु का अभिमान। मृत्यु का भी अभिमान होता है - हम मरेंगे। कहाँ मरेंगे? अमुक तीर्थ में मरेंगे। उतान छाती करके - बन्दूक की गोली के सामने मरेंगे। देशहित के लिए फाँसी पर टँगकर मरेंगे। हमको तो भाई बहुत डर लगता है, हम तो बहुत निर्भय रहते हैं - सब आता है, पर देखना उसको है जो हमारे हृदय में सद्भाव भेजता है। भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः। वह साक्षी, वह प्रेरक, वह अन्तर्यामी है। आप गायत्री का जप करते होंगे। उसमें सीधा दोनों का वर्णन है। एक ओर योग है। भर्गो धीमहि सवितुः वरेण्यम्। ‘धीमहि’ माने ध्यान करते हैं। ध्यान करते हैं माने योग कर रहे हैं। किसके साथ? परमात्मा के साथ। परमात्मा क्या कर रहे हैं? धियो यो नः प्रचोदयात्। वह हमारी बुद्धि को प्रेरित कर रहा है। हम परमात्मा का ध्यान कर रहे हैं और परमात्मा हमारी बुद्धि को प्रेरित कर रहा है। देवता लोग बुद्धि में प्रेरणा, स्फुरणा देकर रक्षा करते हैं। इसमें साफ-साफ बात है - ‘तत्सवितुर्वरेण्यम्’ हम परमात्मा के उस तेज का ध्यान करते हैं - कि तेज का? जो हमारी बुद्धि का प्रेरक प्रकाशक है। माने जो सम्पूर्ण विश्व का सविता है - इधर है, वही हमारी बुद्धि का प्रेरक आत्मा भी है। जीव और ईश्वर दोनों की आत्मा एक है, यही तो गायत्री बोलती है। सृष्टिकर्ता है सविता देवता। देवता - स्वयं प्रकाश और बुद्धिप्रेरक है, हमारे देह में बैठा हुआ। दोनों एक हैं - दोनों में समानाधिकरण्य है। आओ परमात्मा का दर्शन करें। कहाँ से देखें? किसी मशीन में कोई चीज बनती है तो मशीन फटाफट घूमती रहती है, वस्तुएँ निकलती जा रही हैं - उस मशीन चलाने वाले को देखा - और वह मशीन एक मिनट में कितना चक्कर लगाती है यह मत देखो - चलाने वाला कौन है? भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः। सारे भाव जो हमारे हृदय में आते हैं, उसके मूल में परमात्मा आते हैं। और यह जो सारी सृष्टि बनी है - महर्षय: सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा । इसी सारी प्रजा का मूल पिता कौन है? और सद्भावों का प्रेरक कौन है? दो चीजें निकलीं, जो जिससे पैदा है और जो जिससे प्रकाशित होता है, वह अपने प्रकाशक और जनक से पृथक् नहीं होता। यह सारी-की-सारी सृष्टि परमात्ममयी है, उसी की रोशनी में दीखती है और वही सारी सृष्टि में हो रहा है। उसी का योग है और उसी का वैभव है। ऊँ शान्तिः शान्तिः शान्तिः |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्लोक 10.6
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