गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-7 : अध्याय 10
प्रवचन : 4
दान के बारे में तो जैसी बात वेदों में है - अद्भुत है। श्रद्धया देयम्[1] श्रद्धा से दान करो। अश्रद्धया देयम् - अश्रद्धा से भी दान करो। ह्रिया देयम् - शरम से भी दान करो। भ्रिया देयम् - भय से भी दान करो - संविदा देयम् - जान-बूझकर दो। अनजान से दो - लज्जा से दो-देना, क्योंकि लेना-देना की शिक्षा तो मनुष्य अपने आप ही प्राप्त कर लेता है, उसके लिए तो कोई पाठशाला बनाने की जरूरत ही नहीं पड़ती। बच्चे पाठशाला में पढ़े बिना ही सीख लेते हैं, लेकिन देना सिखाने के लिए तो लोगों को पाठशाला भी नहीं बनायी कि इसमें दान करने की, देने की शिक्षा दी जाये। असल में मनुष्य के लिए दान सर्वोपरि है। वृहदारण्यक उपनिषद में यह कथा आयी है।[2] - दैत्य गये ब्रह्माजी के पास - बोले क्या करें? बोले ‘द-द-द’ दया करो। तुम लोग बड़े क्रूर हो - दया करो। देवता गये ब्रह्माजी के पास क्या करें? बोले ‘द-द-द’ दान करो। तीन प्रकार है। दैत्य हिंसक है इसलिए उनके जीवन में दया आनी चाहिए। देवता भोगी हैं, उनके जीवन में दम आना चाहिए और मनुष्य लोभी हैं, उनके जीवन में दान आना चाहिए। कुछ-न-कुछ देते चलो। मनुस्मृति में ऐसे कहा कि अपने घर में कोई आ जाय - अपने घर में अच्छा फर्नीचर न हो - कोई बात नहीं, चटाई बिछायें - कुशासन तो है। अगर वह भी न हो तो धरती पर हाथ फिरा दिया। आइये यहाँ बैठ जाइये। कुछ खाने को देने के लिए न हो तो थोड़ा-सा जल दे दो। जल भी न हो - वाक्चतुर्थी च सुनृता। आपके मुँह में तो है न। मीठा बोलिये। अपनी जबान का शरबत - आपके मुँह में तो अमृत भरा हुआ है। कुछ-न-कुछ देते आप चलते हैं। आपके जीवन में जो क्रोध है, उसकी तन्मात्राएँ आपके शरीर से निकलकर फैलती हैं। आपके जीवन में जो लोभ है उसकी तन्मात्राएँ निकलती हैं। लोभी के संसर्ग में आने से मन में लोभ आता है। क्रोधी के संसर्ग में आने से मन में क्रोध आता है। कामी के संसर्ग में आने से मन में काम आता है। आप तो बहुत कुछ देते चलते हैं, कुछ और भी देते चलिये। ‘तपोदानम्’, पर यह दान करने की वृत्ति आती कहाँ से है। अभिमानी मत बनो। कुछ अभिमान करने लायक नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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