गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-2 : अध्याय 5
प्रवचन : 4
ये केवल चार लाइने हैं उस मन्त्र की। पूरा मन्त्र तो बड़ा हैं, उसे सुनाने की आवश्यकता नहीं। इन पंक्तियों में कहा गया है कि ब्राह्मण आपका तिरस्कार कब करेगा? जब आप उसे पराया समझेंगे। आप समझें कि यह हमारा गुरु है, पुरोहित है अपना है तो ब्राह्मण आपका शत्रु नहीं होगा, अपितु हित करेगा। और ‘अग्निमीडे पुरोहितं’- अग्नि की तरह प्रज्वलित, तेजस्वी रहकर आपकी रक्षा करेगा। इसी तरह क्षत्रिय उसका तिरस्कार करेगा, उसको अपमानित करेगा जो उसे पराया समझेगा और देवता उसका शत्रु होगा, जो उसका तिरस्कार करेगा। इस तरह सब उसके शत्रु हो जायेगें जो सबको पराया समझने वाला होगा। इसलिए सर्वभूतात्मभूतात्म बनो और इसी भावना से आचरण करो। एक सन्त कवि ने कहा है- ‘अब हम कासों बैर करें’? जहाँ देखते हैं, वहाँ अपने प्यारे प्रभु का ही स्वरूप दीखता है। इसके सम्बन्ध में कई दृष्टिकोण हैं। देखो, बेवकूफी किससे नहीं होती? ऐसा कौन मनुष्य है, जिसने कभी नासमझी का काम नहीं किया। लेकिन जब हम खुद नासमझी का काम करते हैं तो अपने को माफ कर देते हैं और दूसरा कोई नासमझी का काम करता है तब हम उसको सजा देना चाहते हैं। दो तराजू हो गये। दूसरे की नासमझी तौलने के लिए दूसरा तराजू और अपनी नासमझी तौलने के लिए दूसरा तराजू। होना यह चाहिए कि दूसरे से गलती हो जाये तो उसको माफ करें और अपने से गलती हो तो उसको समझकर आगे न होने देने की प्रतिज्ञा करें, प्रायश्चित करें और अपने को दण्ड दें। दण्ड अपने लिए और क्षमा दूसरों के लिए होनी चाहिए। यही प्रक्रिया है दोष-शोधन की। किसका शरीर पंचभूतों का बना हुआ नहीं है? जब अपने दांतों से अपनी जीभ कट जाती है और अपने हाथों से अपनी आँखों को चोट लग जाती है, तब हम क्या करते हैं? इसी तरह यदि किसी से तुम्हें आघात लगा है तो उसको अपनी आत्मा समझने में क्या कठिनाई है? ईश्वर सबमें एक है। ये देखो, जो तुम्हारे सामने है उसके भीतर भी ईश्वर ही बैठा है। परन्तु अपने भीतर का ईश्वर यादि नहीं होगा तो दूसरे के भीतर का ईश्वर कैसे याद आवेगा? एक जादू के खेल में, माया में कोई काम हो रहा है वह ब्रह्म में प्रतीति मात्र-जैसा है। यह केवल मालूम पड़ रहा है, वस्तुतः इसकी कोई सत्ता है नहीं, यह ख्याली है। फिर इसमें किसके ऊपर क्रोध किया जाये? तो - ‘सर्वभूतानाम् आत्मभूतः आत्मा यस्य’- समझो कि जितने प्राणी हैं, उनकी आत्मा मैं ही हूँ। सबका सुख, सबका दुःख, सबकी गलती, सबकी सही हमारी है। चित्त में- ‘आत्मौपम्येन यः पश्येत्,सर्वभूतात्मभूतात्मा’ की समता आ जाने पर आपको काम करने की छुट्टी मिल जायेगी और आप ‘कुर्वन्नपि न लिप्यते’- काम करने पर भी उससे लिप्त नहीं होंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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