गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-2 : अध्याय 5
प्रवचन : 4
किसी को नुकसान नहीं पहुँचावेंगे और आपके हृदय में किसी के प्रति जलन नहीं होगी। कर्म की एक बहुत बढ़िया कसौटी यह है कि आप कोई काम करने के पहले डरते हैं क्या? यह तो नहीं सोचते कि कोई देख न ले अथवा किसी को मालूम न पड़ जाये। यदि ऐसा है तो कहीं-न-कहीं स्वार्थ जरूर होगा, भोग-वासना भी जरूर होगी। अच्छी तरह परख लीजिये। करते समय यदि दिल में जलन हो, हृदय में आग जल रही हो तो समझ लीजिये कि आप गलत काम कर रहे हैं। अच्छा काम तो शान्तिदायक है। उसमें दिल ठण्डा होता है, काम करने में रस आता है स्वाद आता है। अपने हाथ से अपना काम करने में जो मज़ा है वह और कहीं नहीं। काम करने के बाद अपने को भी शीतलता मिले और उसे देखे, उसको भी शीतलता प्राप्त हो- 'अन्तःशीतलतायां तु लब्धायां शीतलम् जगत्।' जब हमारे दिल में ठण्डक आ गयी तो सारी दुनिया ठण्ढी हो गयी, शीतल हो गयी। यदि हमारा दिल ठण्डा नहीं हुआ, उद्विग्न है, गर्म है, तो सर्वत्र गर्मी-ही-गर्मी है। इसलिए अन्तःशीतलता आनी चाहिए। मनु जी ने सारे वेदान्त का सार बताया है- 'स वै सर्वमवाप्नोति वेदान्तोपगतं फलम्।' वेदान्त का फल किसको मिलता है- उसको मिलता है, जिसका हृदय शान्त है। कुर्वन्नपि का अर्थ है काम करते हुए भी किं पुनः न कुवन्- जो कर्म नहीं करते उनका कहना ही क्या। चाहे जितना भी काम करो, परन्तु यदि अपने को सबकी आत्मा के रूप में अनुभव करके काम करोगे और जिस प्रकार अपने को तकलीफ पहुँचाना नहीं चाहते, उसी प्रकार दूसरे को तकलीफ नहीं पहुँचाना चाहोगे तो कर्म का कोई अपराध नहीं होगा। अरे समय हो गया। तो बस यहीं हाथ खींचते हैं। हमारे हरिबाबा जी बताते थे कि काम पूरा करना अपने हाथ में नहीं, समय पर कर्तव्य पालन करना अपने हाथ में है। बस, बात अधूरी रहे तो रहे। आज यहीं छोड़ते हैं आगे कल! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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