गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-1 : अध्याय 1-4
प्रवचन : 8
परमेश्वर वह सोना है जिससे जगत् के आभूषण बनते हैं, वह मिट्टी है जिससे जगत् के घट-पटादि बनते हैं, वह लोहा है जिससे सब औजारों का निर्माण होता है। दुनिया का मूल तत्त्व है परमेश्वर। उसके सिवाय दूसरी कोई वस्तु नहीं। चाहे जहाँ और चाहे जिस पदार्थ में हम परमेश्वर का दर्शन कर सकते हैं। आकार, मूल द्रव्य का अवतार होता है। जगत् की मूल-भूत वस्तु ही आकार के रूप में परिवर्तित होती है। ईसाई धर्म में परमेश्वर को जगत् का उपादान नहीं मानते, निमित्त मानते हैं। हमारे आर्यसमाजी लोग भी परमेश्वर को जगत् का निमित्त कारण ही मानते हैं, उपदान कारण नहीं। किन्तु हमारा जो सनातन वैदिक धर्म है वह परमेश्वर को जगत् निमित्त कारण मानने के साथ-साथ उपादान कारण भी मानता है। उसकी मान्यता के अनुसार परमेश्वर ही वह मसाला या मैटर है जिससे यह जगत् बना है। अतः जगत् में परमेश्वर का अवतार भी होता है और मूर्ति भी होती है। अब आप यह देखिये कि निराकार ईश्वर निष्प्राण अथवा हृदयहीन तत्त्व है क्या? यदि हृदयहीन नहीं तो भक्तों की प्रार्थना क्यों न सुने अथवा अपनी सृष्टि में आवश्यकता समझकर क्यों नहीं अवतरित हो? आप इन श्लोकों में अवतार के मूल रूप का विवेचन, अवतार की प्रक्रिया और अवतार का प्रयोजन देखें- अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्। यह है अवतार का मूल स्वरूपः प्रकृतिं स्वामधिष्ठायसंभवाम्यात्ममायया ॥[1] यह है अवतार की प्रक्रिया; और यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। यह है अवतार का प्रयोजन, अवतार लेने पर भी ईश्वर में कोई विकास नहीं आता, यह बात इस श्लोक में बतायी गयी है- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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