गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-6 : अध्याय 9
प्रवचन : 8
येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजान्ते श्रद्धयाविन्ताः। तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्। कोई कहता है देखो ये बात स्वामीजी को मालूम न होने पावे। किन्तु वह तो मुझे मालूम पड़ जाती है। वे मुझे बता देते हैं। अन्य-अन्य देवता के जो भक्त होते हैं, भक्त नहीं समझते हैं कि ये भगवान हैं। भगवद्बुद्धि उनकी नहीं होती। और सम्भव है देवता भी न समझें कि मेरे अन्दर भगवान हैं। वे अज्ञानी होते हैं, जिनको पूजा-पत्री ज्यादा मिलने लगती है वे थोड़े अभिमानी हो जाते हैं। आप देखते हैं - इन्द्र को भेंट पूजा कायदे से मिलने लगती तो उन्होंने कहा - नहीं ईश्वर कुछ नहीं है - मैं ही परमेश्वर हूँ। और जब भगवान ने उनकी पूजा में बाधा डाली तो असुर हो गये - देवता नहीं रहे - असुर हो गये। अन्य देवता की भक्ति में दोष कहाँ आया? एक तो भक्त के हृदय में जो अन्य बुद्धि है या दूसरा कोई है - और देवता के हृदय में यह बुद्धि आयी कि मैं दूसरा कुछ हूँ। भक्त में श्रद्धा तो है, लेकिन भगवान का यह स्वभाव है - देखो भाई हम तो पहचानते नहीं हैं। यह भक्त की पूजा है। यजमान के हृदय में भगवान बैठते हैं। अन्तर्यामी हैं और वह कहते हैं - हे यजमान; अब मैं तुमको पसन्द कर रहा हूँ। तुम मेरे बड़े प्यारे हो। इसलिए तुम्हारे हाथ में ऐसा कोई काम कराना चाहता हूँ जिससे तुम हमारे पास आ जाओ। जिस चेतन को भगवान पसन्द करते हैं, यह मेरे पास आवे, उसके हृदय में शुभ प्रेरणा देते हैं। उसके मन में अच्छे काम की प्रेरणा देते हैं। और उधर इन्द्र के हृदय में बैठ जाते हैं। पहले तुमने बड़े सेवा की है तो यह जो बड़ी पूजा मिलती है वह तुम ले लो। तो उधर यजमान के हृदय में प्रेरणा देने वाले वही आहुति के दाता और वही आहुति के भोक्ता। ‘अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता’ - इन्द्र हृदय और प्रभुरेव च यजमान हृदय। यजमान के हृदय में प्रेरणा देने वाला मैं। दोनों मेरी लीला है। दोष कहाँ है? ‘न तु मामाभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते’। वे मुझे पहचानते नहीं हैं। ‘न तु मामभिजानन्ति’ - आत्मरूप से, ब्रह्मरूप से - दोनों में मुझको नहीं देखते हैं। यह मेरा आदर्श ही उनकी च्युतिका - च्यवन का कारण है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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