गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-3 : अध्याय 6
प्रवचन : 2
कर्म का चौथा दोष है द्वेष। किसी को नीचा दिखाने के लिए काम करना। उसका जो उद्देश्य है, बहुत बुरा है। कर्म में पाँचवा दोष है, उसमें इतना डूब जाना कि ईश्वर, विश्व, मानवता, यहाँ तक कि अपने परिवार और सगे-सम्बन्धियों आदि सबको भूलकर केवल मूर्खता में डूब गये। उनके चारों ओर डर का, भय का वातावरण बन गया। भयभीत होकर काम करना कर्म का पाँचवाँ दोष है। इसके लिए गीता में विद्या का उल्लेख है। गीता विद्या है। गीता बुद्धि है। गीता ज्ञान है। वह आपको इन पाँचों गलतियों से बचाती है। विद्या है, ज्ञान है माने आप अपने कर्म में ये पाँच गलतियाँ न करें। इन त्रुटियों का आपके कर्म में समावेश न हो। इसके लिए भगवान ने चार विद्या बतायी। एक तो आपके कर्म में औचित्य होना चाहिए। इसको गीता में धर्म विद्या बोला गया है। दूसरे, आप जो कर्म करें, उसमें अभिमान न हो, घमण्ड न हो, हेकड़ी न हो। इसको मिटाने के लिए गीता में शरणागति विद्या है। अब तीसरी ऐश्वर्य विद्या है। ईश्वर के बड़प्पन की ओर देखो तो तुम्हारे बड़प्पन का अभिमान मिट जायेगा। अब आप इनको क्रम से ले लो। यदि उचित कर्म करोगे तो निर्भय हो जाओगे। जो ठीक-ठीक काम करता है उसको कहीं से भय आ ही नहीं सकता। इसी को धर्म विद्या कहते हैं कि ईश्वर के बड़प्पन का ख्याल रखो। पाँच मिनट, दस मिनट शान्ति से बैठ जाओ और अपने मैं को ईश्वर के साथ मिला दो, उनके सामने अर्पित कर दो, उनके चरणों में गिर जाओ। अंश को अंशी से मिला दो। यह शरणागति विद्या है। जो भाई-भतीजों से पक्षपात और परायों से द्वेष होता है, उसको मिटाने के लिए गीता में चौथी वैराग्य-विद्या है। एक विद्या और है। वह है ब्रह्मविद्या अर्थात अविद्याको, भ्रान्ति को, समूल मिटाने वाली विद्या - जिसमें अज्ञान नाम की चीज नहीं रहती है और भय का अस्तित्व नहीं रहता। यह ब्रह्मविद्या प्राप्त कर लेने से आपको इसी जीवन में तीन फल मिलेंगे। अभयं प्रतिष्ठां विन्दते- पहले आपको अभय की प्राप्ति होगी। दूसरे आपको स्वातन्त्रय मिलेगा, पराधीनता मिट जायेगी। स्वातन्त्रय ही सुख है। और तीसरी वस्तु प्राप्त होगी समझ की निर्मलता। एक विज्ञान से सर्वविज्ञान। यह एक ऐसा तत्त्व है, जिसको जान लेने से कुछ भी अनजाना नहीं रह जाता। तो ब्रह्म विद्या का परिणाम है ज्ञान की पूर्णता, पूर्ण स्वातन्त्र्य और पूर्ण निर्भयता। आप उस जीवन की कल्पना भी करें। गीता में समाधि लगाकर हमेशा के लिए संसार से उठ जाने वाले योग का वर्णन नहीं। छठे अध्याय में ध्यान कैसे लगायें, इसका वर्णन है। इसका नाम ही है ध्यान योग। परन्तु यह ध्यान किसलिए ? अंग है कि अंगी है? ध्यान ही लक्ष्य है या ध्यान लक्ष्य की प्राप्ति का साधन है? निश्चय ही यहाँ जो ध्यान है, वह लक्ष्य नहीं; लक्ष्य की प्राप्ति साधन है। इसलिए भगवान ने कहा परमयोगी कौन ? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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