गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-3 : अध्याय 6
प्रवचन : 2
आप गीता के छठे अध्याय में ढूँढ़ लेना- स योगी परमो मतः। एक योगी है, जो ध्यान करता है, ध्यानी है, ध्यानी योगी लेकिन परम-योगी कौन है? गीता कहती है- आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन। श्रीमधुसूदन सरस्वती कहते हैं कि भाई, यह तो समाधि-योगी से बड़ा योगी है, परमयोगी है। कौन? जो दूसरे के सुख में मिल गया है, दूसरे के दुःख में मिल गया है। जैसे मनुष्य स्वयं अपने दुःख दूर करने का प्रयत्न करता है, वैसे वह सबका दुःख दूर करने का प्रयास करे। जिस तरह वह स्वयं सुखी होने का प्रयास करता है, वैसे ही सबको सुखी करने का प्रयास करे। वही परमयोगी है। गीता हिमालय की गुफ़ा में जंगल में ले जाकर पीठ की रीढ़ सीधी करके, आँखे बन्द करके प्राण निश्चल करके, मन को निस्संकल्प करके, हमेशा समाधि में बैठाये रखने वाला योग नहीं बताती। गीता तो वह योग बताती है, जिससे व्यवहार में हम अपने कर्म को इस प्रकार कर सकें कि उसमें मूर्खता न हो, पराधीनता न हो और मृत्यु आदि का कोई भय न हो। ऊँ शान्तिः शान्तिः शान्तिः |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 6-32
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