गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-12 : अध्याय 15
प्रवचन : 1
बाद में भूत, प्रकृति से मोक्ष का वर्णन किया। यह अलग-अलग अन्तःकरण के कारण, अलग-अलग वासनाओं के कारण, अलग-अलग शरीरों के कारण, जो अलग-अलग भूत, पैदा होने वाले पदार्थ दिखायी पड़ रहे हैं, इनकी एक प्रकृति है, उससे जो मुक्त हो जाते हैं, वे परतत्त्व को प्राप्त होते हैं। भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम् ॥[1] संगति तेरहवें अध्याय की चौदहवें अध्याय के साथ इतनी स्पष्ट है कि तेरहवें अध्याय के अन्त में है ‘परम’- भूतप्रकृति मोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम। और चौदहवाँ अध्याय जब भगवान आरम्भ करते हैं तो- परम भूयः प्रवक्ष्यामि। तेरहवें अध्याय के अन्त में ‘परम’ और चौदहवें अध्याय के प्रारम्भ में ‘परम’। परम यान्ति, परम प्रवक्ष्यामि। उस परतत्त्व के निरूपण के लिए जो आवश्यक, अनिवार्य तत्त्व है उसका निरूपण चौदहवें अध्याय में किया हुआ है। ऐसा अद्भुत है यह अध्याय कि संसार में लोग सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुण मानते हैं। तमोगुण से श्रेष्ठ रजोगुण, रजोगुण से श्रेष्ठ सत्त्वगुण। सत्त्वगुण से ऊपर भी कुछ है, इस बात को प्रायः जानते ही नहीं हैं और चौदहवें अध्याय का समग्र प्रतिपाद्य यह है कि आप तमोगुण, रजोगुण, सतोगुण-सबसे विलक्षण हैं-सबसे अन्तरंग हैं-गुणातीत हैं। जब तक आप अपने को गुणातीत नहीं सगझेंगे तब तक कर्तापन और भोक्तापन से मुक्ति नहीं होगी और करते रहेंगे कर्म और कर्म का फल भोगते रहेंगे। संसार में ‘जायस्व’ ‘म्रियस्व’-पैदा होओ और मरो इसी में फँसे रह जायेंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्लोक-13.34
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