गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-1 : अध्याय 1-4
प्रवचन : 1
वह विषाद भी योग है जिसके द्वारा हम कण-कण की, क्षण-क्षण की, जन-जन की और मन-मन की शरण लेना छोड़कर एक सर्वशक्ति-सम्पन्न सर्वज्ञ परमेश्वर की ओर देखने लगते हैं और अन्त में कह देते हैं: शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् शिष्य का अर्थ शिक्षा देने योग्य नहीं होता, संस्कृत भाषा में शिष्य का अर्थ होता है शासन करने योग्य। जिस धातु से शिष्य शब्द बनता है उसके अनुसार जो शिष्य है वह ईश्वर से कहता है कि ‘आप हमको शिक्षा मत दीजिये, आज्ञा दीजिये, हमारे ऊपर शासन कीजिये। क्योंकि मैं अहंभाव छोड़कर आपकी शरण में आया हूँ।’ प्रपन्न और शरणागत में थोड़ा अन्तर होता है। श्री वैष्णव धर्म में प्रपत्ति और शरणागति हो वस्तु मानी जती है। गीता आरम्भ में प्रपत्ति है और अन्त में शरणागति। प्रपन्न का अर्थ इस प्रकार होता है कि जैसे हमारे पाँव के दो हिस्से होते हैं। ऊपर के हिस्से को बोलते हैं प्रपद-पंजा और जो निचला हिस्सा है, उसको तलवा बोलते हैं। प्रपत्ति का अर्थ होता है कि मैंने आपके पाँव का पंजा-प्रपद पकड़ लिया। प्रपत्ति में अपनी पकड़ है, वैसे ही जैसे वानर का बच्चा अपनी माँ की छाती पकड़ लेता है। पकड़ उसकी अपनी होती है, नहीं पकड़ेगा तो गिर जायेगा। शरणागति होती है बिल्ली के उस बच्चे की तरह जिसको वह अपने मुँह में ले लेती है। श्रीवैष्णव लोगों ने प्रपत्ति और शरणागति के ये दो दृष्टान्त दिये हैं। शरणागति में सम्पूर्ण निर्भरता होती है और प्रपत्ति में अपनी ओर से भगवान की पकड़ होती है। ‘शिष्यस्तेऽहं’-यह विषाद अर्जुन के जीवन में कितनी उच्च-कोटि की वस्तु है, जिसने उसको भीष्म अथवा द्रोण जैसे गुरुजनों की शरण में नहीं जाने दिया। उन्होंने अपने महाराजा और बड़े भाई युधिष्ठिर जैसे धर्मात्मा से भी सलाह नहीं ली। वे गये अपने जीवन रथ पर, शरीर-रथ पर आरूढ़ अपनी बुद्धि की बागडोर पकड़े हुए और हाथ में चाबुक लिये हुए सारथि स्वरूप भगवान की शरण में। सारथि का अर्थ चलाने वाला होता है-‘सारयति अश्वान् इति सारथि।’। जो संचालन करे, उसका नाम सारथि। वास्तव में भगवान ही हमारी बुद्धि में बैठकर अन्तर्यामी रूप से हमारा संचालन करने के कारण हमारे सच्चे सारथि हैं। यह आता है-‘बुद्धिं तु सारथिं विद्धि’[1] बुद्धि में बैठे हुए अन्तर्यामी जो ब्रह्म हैं वे ही सारथि हैं। ‘इन्द्रियाणि हयान्याहुः’[2] इन्द्रियाँ हय हैं। शरीरऽऽरथमेव तु शरीर रथ है और धनुर्गृहीत्वा[3] इस धनुष पर अपने आप को ही बाण के रूप में चढ़ाना पड़ता है, आत्मबलि करनी पड़ती है। यह आत्मबलि ही शरणागति है। तब मनुष्य स्वयं लक्ष्य का वेध नहीं करता, उसके द्वारा स्वयं भगवान ही लक्ष्यभेद करते हैं। अतः जो प्रभु सम्पूर्ण विश्व की बुद्धि के संचालक हैं उनको अपना सच्चा हितैषी मानकर अभिमान छोड़कर उनकी सहायता प्राप्त करने के लिए अपने-जीव-रथ का सारथि स्वीकार कर लिया जाये और अपनी जीवन की बागडोर उनके हाथों में दे दी जाये तो हमारे लिए भी- शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।[4] की सार्थकता सिद्ध हो जायेगी।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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