गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-1 : अध्याय 1-4
प्रवचन : 1
जब बुद्धि का मुँह ईश्वर की ओर होता है तब ईश्वर अज्ञान को मिटा देता है और जब अज्ञान मिट जाता है तब ज्ञानस्वरूप आत्मा और ज्ञानस्वरूप ईश्वर में किसी प्रकार के भेद की उपलब्धि नहीं होती। वह विषाद भी योग है जो संसार में बिखरने वाले और जन-जन की शरण में जाने वाले हमारे मन को भगवान में संलग्न करता है। कितना पराधीन है वह जीवन जो सोचता है कि अमुक वस्तु के बिना मैं नहीं रह सकता। एक जड़ वस्तु उसका नाम कुछ भी रख लो। आप लोग मुझसे बहुत ज़्यादा जानते हैं कि वे कौन-सी वस्तुएँ हैं, जिनके बारे में आप सोचते हैं कि हम उनके बिना नहीं रह सकते। हम एक-एक वस्तु, एक-एक कण के पास तो जायें कि हम तुम्हारे बिना नहीं रह सकते। काल के टुकड़े, क्षण-क्षण के पास जायें कि तुम्हारे बिना हम नहीं रह सकते। धरती के चप्पे-चप्पे के पास जायें कि हम तुम्हारे बिना नहीं रह सकते। एक-एक व्यक्ति के पास जायें, हाथ जोड़ें, शरण-ग्रहण करें, किन्तु सम्पूर्ण विश्व-सृष्टि का जो संचालक है, उस पर हमारा ध्यान न जाये, हम उसकी शरण न लें- यह तो हमारे अभिमान की पराकाष्ठा है। इस दुनिया में जितनी चोटें लगती हैं, जितने भी चपत लगते हैं, वे आत्मा को नहीं लगते, ईश्वर को भी नहीं लगते, बल्कि वह सब हमारे अभिमान को ही लगते हैं। भगवान ने चोट और चपत खाने के लिए अभिमान को ही बनाया है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 10.11
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