गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-8 : अध्याय 11
प्रवचन : 8
जप-यज्ञ क्या है? यह व्यक्ति को उत्तम अवस्था में ले जाने वाले होते हैं। हृदय में श्रद्धा आयी, ध्यान हुआ देवता का, उत्तम शब्दों का उच्चारण हुआ और शरीर में उत्तम स्फुरण हुए और रग-रग में उस उच्चारण की शक्ति व्याप्त हुई। तो जीवन में सिद्धि लाने के लिए, शक्ति लाने के लिए और अपने जीवन का विकास करने के लिए जप-यज्ञ बहुत श्रेष्ठ यज्ञ है, इसलिए भगवान ने गीता में ‘यज्ञानां जपयज्ञोस्मि’ कहा। यज्ञ बहुत प्रकार के होते हैं। कोई शब्दादि विषयों को इन्द्रियाग्नि में हवन करते हैं। कोई इन्द्रियादि को शब्दादि विषयों में हवन करते हैं। कोई प्राण को अपान में करते हैं। कोई अपान को प्राण में करते हैं। बारह प्रकार के यज्ञों का वर्णन गीता में एक स्थान पर लिखा हुआ है। परन्तु वे सब यज्ञ हैं ही और जो बाहर यज्ञ होता है-जैसे अश्वमेध यज्ञ है, राजसूय यज्ञ है, वृहस्पति सव है, वाजपेय है, वैश्यस्तोम है, निषाद-स्थपति-याग है, आदि उन सब यज्ञों के बीच में भगवान के नाम का, भगवान के मन्त्र का जप मूर्धन्य बन गया है। यह जप अभिमानोत्पादक नहीं होना चाहिए, परम्परा से प्राप्त होना चाहिए, अधिकारी के द्वारा होना चाहिए, विधिपूर्वक होना चाहिए, श्रद्धा से होना चाहिए तो यह जप-यज्ञ मनुष्य को श्रेष्ठ बना देता है। जैसे यहाँ विष्णु का आराध्य के रूप में विभूति का वर्णन है वैसे वहाँ अनधिकारी को भी अधिकारी बना देने वाले प्रेरक का प्रतिपादन है। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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