श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
अतएव श्रीलीलाशुक की उक्ति के इन श्लोकों का यह क्रमनिर्देश किया जा सकता है : पहले श्लोक में मंगलाचरण, दूसरे में वस्तुनिर्देश, तीसरे में लीला में आत्मप्रवेश, चार से इक्कीस तक स्फूर्ति में श्रीकृष्णदर्शन की प्रार्थना, बाईस में स्वनिश्चय कथन, तेइस से पचपन तक तेतीस श्लोकों में रास्थली से श्रीकृष्ण के अंतर्हित होने पर कृष्णविरहिणी गोपियों का कृष्णदर्शनतोत्कण्ठा हेतु प्रलाप और स्फूर्ति में दर्शन की प्रार्थना। 56-60 इन पाँच श्लोकों में स्फूर्ति में साक्षात्कार का भ्रम या विस्फूर्ति; 61-67 इन सात में पुनः दर्शन की उत्कण्ठा। 68-95 अठ्ठाईस श्लोकों में भगवत् साक्षात्कार के पश्चात उसी भगवतरूप का मनोवाक्य- अगोचरत्व वर्णन; 96-112 सत्र श्लोकों में श्रीकृष्ण के साथ उक्ति-प्रत्युक्ति का वर्णन है। एक सौ बारह श्लोकों में ग्रंथ पूरा हुआ है। श्रीपाद लीलाशुक रासलीला की स्फूर्ति के माध्यम से श्रीकृष्णमाधुरी की आस्वादन प्राप्त करते हैं। राधारानी के साथ निभृत लीला की उत्कण्ठा श्रीकृष्ण के मन में है। सभी प्रकार के समाधान के लिए श्रीराधा और गोपियों की उत्कण्ठा वृद्धि हेतु वे सभी गोपियों के साथ समान रूप से मिलने लगें- ‘बाहुप्रसार परिरम्भ’ इत्यादि। उसी लीला की स्फूर्ति में श्रीलीलाशुक अपनी समाजातीय सखियों में बोले- श्रीकृष्ण बाहुप्रसार कर आलिंगन आदि क्रीड़ाओं द्वारा गोपियों का कामभाव उद्दीप्त कर उनके साथ स्मरण कर रहे हैं। इसी श्लोक में श्रीराधा एवं गोपियों के साथ श्रीकृष्ण के विलास की स्फूर्ति को लेकर तत्कालीन श्रीकृष्णमाधुर्य का रसोद्गार कर रहे हैं। पहले श्रीलीलाशुक को श्रीकृष्ण के रूपलावण्य और भूषणादि की छटा की स्फूर्ति होती है। गोपियों के लावण्यभूषणादि से विभूषित उस निर्विशेष ज्योति की स्फूर्ति से उनके चित्त में असीम आनंद का उद्रेक हुआ। वे समप्राण सखियों से बोले- “ज्योतिश्चेतसि नश्चकास्तु”- सखियों, यह ज्योति हम लोगों के हृदय में प्रकाशित हो, यह आत्म-अनात्म और स्व-पर प्रकाशक है, मनोनेत्रों की रसायन अति अद्भुत वस्तु है। श्रीकृष्ण की अंगकांति ही निर्विशेष ब्रह्म है। “कृष्णेर अंगेर प्रभा परम उज्ज्वल। उपनिषद् कहे जारे ब्रह्म सुनिर्मल।।” (चै.च.) और भी कहा है- “अद्वय ज्ञानतत्त्ववस्तु कृष्णेर स्वरूप। ब्रह्म आत्मा भगवान् तिन ताँर रूप।।” “ब्रह्म अंगकांति ताँर निर्विशेष प्रकाशे। सूर्य जेनो चर्मचक्षे ज्योतिर्मय भासे।।” (चै.च.) एक ही अद्वयज्ञानतत्त्व स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण उपासनाभेद से ज्ञानी योगी और भक्तों के निकट किस प्रकार बाह्म परमात्मा एवं भगवान् के रूप में प्रतिभात होते हैं- इसका एक सुन्दर दृष्टान्त महाकवि माघ के शिशुपाल वध काव्य में मिलता है। एक देवर्षि नारद स्वर्गलोक से द्वारका उतरकर आ रहे थे। पुरवासी प्रजा ने दूर आकाश में नारद जी की ज्योर्तिमय देह की कान्ति दर्शन कर उसे एक ज्योति ही समझा। और भी नीचे आये, तो उनकी नराकृति दर्शन कर नर की कान्ति समझा। श्रीनारद उन लोगों के निकट उपस्थित हुए उन्होंने नारग की अपूर्व भक्तिरस मूर्ति देखकर और उनकी वीणा पर चमत्कार पूर्ण मधुर कृष्णगुणगान सुनकर स्वयं को धन्य माना। इस दृष्टान्त में ज्योति ही ब्रह्म है, अवयव की कान्ति परमात्मा है, नर की कान्ति भगवान् हैं और सभी गुणों के अनुभव के साथ कान्तिमान नारद का अनुभव ही स्वयं भगवान् अखंड अद्वय ज्ञानतत्त्व श्रीकृष्ण हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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