श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
श्रीलीलाशुक को गोपिकाओं के समक्ष उच्छ्वलित श्रीकृष्ण की अंगच्छटा और भूषणादि की छटा का स्फुरण हुआ, तो उन्हें मनोनेत्र-रसायन अद्भुत कान्ति समझा। एक विशेष स्फूर्ति प्राप्त कर बोले “माधुर्यमग्नाननं” श्रीकृष्ण के कुण्डलों से सुशोभित गण्डस्थलों का लावण्य देखकर, मधुर अधरों से दसों दिशाओं में माधुर्य प्रवाह बहता देखकर कहने लगे- उनका वदन माधुर्य के प्रवाह में मग्न या नेत्र माधुर्य प्रवाह में स्नात (भीगे, स्नान किए) है। गोपिकाओं की दृष्टि में वह माधुर्यप्रवाह बड़ा विषम (जबरदस्त) है; उन लोगों का सभी कुछ उस प्रवाह में डूब जाता है। पदकर्ता ने गोपियों की पूर्वराग दशा में उनके मुख से श्रीकृष्ण की वदन-माधुरी को लेकर अपूर्व रसोद्गार प्रस्तुत किया है-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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