श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
अन्वयः - हे कृपालय (कृपानिधे) नः (अस्मान्) परिपालय, आर्तबन्धवः विभुः (सर्वरक्षासमर्थः श्रीकृष्णः) नः (अस्माकं बहुजल्पितानां मध्ये) सकृज्जल्पितं मुरलीमृदुलस्वनान्तरे कदा आकर्णयिता (श्रोष्यति)?।।62।। अनुवाद- हे कृपानिधे ! तुम कब आकर अपने विरहताप से हम विभु सर्वरक्षासमर्थ ! अपने मृदुल मुरलीरव में एक बार भी हमलोगों की बात कब सुनोगे?।।6।। कृष्णवल्लभा सुबोधनी पुनस्तथैव सदैन्यमाह- हे कृपालो सकृदेत्य नोऽस्मान् पालय। आगमनं तावदास्ताम्- हे आर्तबान्धव; आर्तानां नो जल्पितं मुरलीमृदुल- स्वनस्यान्तरे तस्य मध्ये सकृदपि कदा नु श्रोष्यसि। तत्र हेतुः- विभुरस्मत् प्रभुः।।62।।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वैतालीयं छन्दः
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