सारंगरंगदा
ततः क्षणादुत्थाय वृन्दावनं गच्छन्नेतद्वदन्त्यां तस्यां मूर्च्छितायां तत्सखीनामन्योन्यप्रलपित-स्फूर्त्या तदनुवदन्नाह द्वाभ्याम्। नु भोः सख्यः। हे कृपालो एत्य नोऽस्मान् परिपालयेत्स्माकं बहुजल्पितानां मध्ये सकृज्जल्पितमे-कजल्पितमपि विभुः सर्वरक्षासमर्थः श्रीकृष्णो मुरलीस्वनस्यान्तरे मध्ये कदाकर्णयिता श्रोष्यति। तत्र हेतुः- आर्तेति। कृपालयेत्यसकृदिति पाठे- हे कृपालय इत्यसकृज्जाल्पितम्।। दशान्तरद्वये सुगमम्।।62।।
‘आस्वादबिन्दु’ टीका
श्रील कविराज गोस्वामिपाद कहते हैं, राधारानी क्षणभर पीछे उठकर वृन्दावन जा रही हैं। तभी पूर्वोक्त प्रलापवाक्य कहकर मूर्च्छित हो जाने पर सखियाँ उन्हें समझा रही हैं। उन लोगों के पारस्परिक प्रलापवचन स्फुरित होने पर श्रीलीलाशुक ने दो श्लोकों में उन वचनों का ही अनुवाद किया है।
श्रीमती कहती हैं- हे सखियों ! हम लोगों ने पहले बहुत प्रार्थना की हैं। इस समय यही प्रार्थना करेंगी- हे कृपालु ! यहाँ आकर हम लोगों की रक्षा करो। हमारे बहुत से जल्पित वाक्य हैं, उनमें से कम से कम एक भी सुन लो। हे विभो ! सभी की रक्षा में समर्थ श्रीकृष्ण ! अपने मृदुल मुरलीरव के बीच हमारा यह वाक्य कब सुनोगे?[1] ‘आस्वाद्यमाननिज-वेणुविनोदनादम्’ श्रीकृष्ण अपने मोहनवेणु का मधुर नाद स्वयं ही आस्वादन करते हैं। वेणुनाद के समय श्रीकृष्ण की तन्मयता देखकर लगता है कि वे अपने मोहनवेणु का नाद स्वयं ही आस्वादन कर रहे हैं। अन्यथा वेणुवादन के समय वे इतने तन्मय क्यों होंगे? वेणुनाद श्रीकृष्ण की असाधारण माधुरी हैं- उनकी असामान्य चार माधुरियों में अन्यतम् और सर्वचित्ताकर्षक ! श्रीकृष्ण की माधुरी उन्हें भी विमोहित किए रहती हैं-
- “कृष्णमाधुर्येर एक स्वाभाविक बल।
- कृष्ण आदि नरनारी करये चंचल।।
- श्रवणे दर्शने आकर्षये सर्वमन।
- आपना आस्वादिते कृष्ण करये जतन।।[2]
इस कलियुग में स्वमाधुर्य आस्वादन के लिए कृष्ण श्रीराधा की भावकान्ति लेकर गौरांग हुए और वेणुमाधुरी के आस्वादन में विह्वल होकर बोले-
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