श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
अन्वयः - त्रिभुवनमंगलदिव्यनामधेय (त्रिभुवनानामपि मंगल यस्मात्तादृशं नामधेयं यस्य) देव जय, देव जय, देव जय। श्रवणमनोनयनामृतावतार (श्रवणमनोनयनामृतरूपं प्राकट्यं यस्य) देव कृष्णदेव जय जय जय।।108।। अनुवाद- हे त्रिभुवन- मंगल- दिव्यनामधेय (धारी) ! हे देव जय, हे देव जय, हे देव जय। हे श्रवण- मन- नयन के अमृतावतार। हे देव, हे कृष्णदेव ! तुम्हारी जय जय जय।।108।।
कृष्णवल्लभा
अथ परममहाभक्तिसम्भ्रमेण श्रीकृष्णं स्तौति- जय जयेति। हे जय देव। जयतीति जयः दिव्यतीति देवः। समस्तभगवत्स्व- रूपोत्कृष्टेत्यर्थः। कीदृश- देव देव। देवानां ब्रह्मादीनामपि देव आराध्यस्तत्सम्बुद्धौ। जय जयेति सम्भ्रमे वीप्सा। पुनः कीदृश- त्रिभुवनमंगलदिव्यनामधेय। त्रिभुवनमंगलस्वरूपं दिव्यमद्भुतं नामधेयं यस्य स तत्संबुद्धौ। पुनरावृत्त्या तदेव वदति– हे जय देव ! हे कृष्णदेव !! जय जय। कीदृश – श्रवणमनो- नयनामृतावतार। श्रवणमनोनयनामृत- स्वरूपोऽवतारो यस्य। श्रवणमनोनय- नेष्वमृतस्य परमानन्दविशेषस्यावतारेति वा।।108।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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