श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
अन्वयः – श्रोत्रमनोहरम् (श्रोत्रे मनश्च हरतीति तत्) व्रजवधू- लीलामिथोजल्पितम् (व्रजवधूनां लीलया परिहासचातुर्येण राधया सह मिथोजल्पितम्) श्रोतुं क्रीडानिमीलद्दृशः (क्रीडया कौतुकेन निमीलिते दृशौ तस्य) भगवतः (श्रीकृणस्य) स्तोक-स्तोक – निरुद्धमान- मृदुल-प्रस्यन्दि मन्दस्मितम् (अत्यल्पमपि विशेषेण रुध्यमानमपि मृदुलमपि प्रकर्षेण स्यन्दितुं शीलं यस्य तादृशं मन्दस्मितं यत्र तत्) प्रेमोद्भेदनिर्गलप्रसृमर प्रव्यक्तरोमोद्रमम् (प्रेम्न उद्भेद उद्रेकस्तेन यत्नैरपि निरोद्भुमशक्यः प्रसरणशीलः प्रव्यक्तो रोमोद्गमो यत्र तद्) मिथ्यास्वापमुपास्महे।।21।। अनुवाद- व्रजवधुओं की परस्पर कर्णरसायन प्रेमकथा सुनने की इच्छा से श्रीकृष्ण कपटपूर्ण नेत्र बन्द कर जो निद्रा कर रहे हैं, हम उस कपटनिद्रा की उपासना करते हैं। इस कपट निद्रा में उनका कोमल विकसित मन्दहास्य है जिसे वे धीरे-धीरे रोक रहे हैं, और वे पुलकावली से भरे हैं जो प्रेमाविर्भाव के कारण प्रसारित एवं प्रकृष्ट से व्यक्त हो रही है।।21।। कृष्णवल्लभा
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ शार्दूलविक्रीडितं छन्दः
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