श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
अन्वयः – असितभ्रुवोः आनम्राम् (श्यामयो- र्भ्रुवोः कुटिलाम्) अक्षीणपक्ष्मांकुरेषु उपचिताम् (अनल्पेषु पक्ष्मांकुरेषु समृद्धिमतीम्) अनुरागिणोः नयनयोः आलोलाम् (चञ्चलाम्) मृदौ जल्पिते आद्राम् (सरसाम्), अधरामृते आताम्राम (अत्यरूणाम), अम्लानवंशीस्वनेषु मदकलाम् (हर्ष-व्याप्ताम्), व्रजशिशोः जगन्मोहिनीं मूर्तिं मम लोचनम् आशास्ते (द्रष्टुमाकांक्षति)।।54।। अनुवाद- जिसकी कृष्णवर्ण भ्रूद्वय (भौंहे) कुटिल हैं, सघन पक्ष्मांकुरों से समृद्ध नेत्र अनुरागी जनों के प्रति सतत् चञ्चल हैं, जो मृदु जल्पना से आर्द्रतायुक्त है, अधरामृत से अरुण वर्ण है, अम्लान वंशीरव की अव्यक्त मधुर ध्वनि से हर्षव्याप्त है- व्रजकिशोर की उसी जगन्मोहिनी मूर्ति के दर्शन के लिए मेरे नयन सतत आकांक्षा कर रहे हैं।।54।। कृष्णवल्लभा |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ शार्दूलविक्रीकिडतं छन्दः
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