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श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
श्रील – लीलाशुक – विरचितंश्रीकृष्णकर्णामृतम्
अन्वयः – चिन्तामणिः (स्वाभीष्टपूरकः) मे (मम) गुरुः (गुरुदेवः) सोमगिरिः (सोमगिरिनामधेयः) जयति (सर्वोत्कर्षेण वर्तते), शिक्षागुरुः च भगवान् शिखिपिञ्छमौलिः (व्रजेंद्रनन्दनः श्रीकृष्णः) जयति, यत् (यस्य) पादकल्पतरु – पल्लव – शेखरेषु (पदाङ्मुलीदलनखाग्रेषु) जयश्रीः (श्रीराधा) लीला स्वयम्बरः रसं (लीलायाः यः स्वयंवरः रसः तज्जन्य - सुखं) लभते (प्रान्पोति)।।1।। अनुवाद- सर्वाभीष्टपूरक मेरे दीक्षागुरु श्रीसोमगिरि की जय हो और जिनके पदकल्पतरु के पल्लेवशेखर अर्थात् पदनखों के अग्रभाग में जयश्री राधा लीलावश स्वयम्बर सुख पाती हैं, मेरे उन्हीं शिक्षागुरु शिखिपिञ्छमौलि (मोरपंखधारी) व्रजेंद्रनन्दन श्रीकृष्ण की जय हो।।1।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वसन्ततिलकं छन्दः
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