गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-7 : अध्याय 10
प्रवचन : 9
अब भगवान ने देखा कि ये तो प्रीति और प्रीतिपूर्वक भजन में डूब गया। इसको कोई ज्ञान ही नहीं - न शरीर की याद है, न घर की याद है, न संसार की याद है तो बोले भाई, इन्होंने तो अपना सर्वस्व हमको दे दिया। अब हमको भी कुछ करना चाहिए। भगवान केवल ले ही लें - गोस्वामीजी ने तो एकांगी प्रेम का बहुत महत्त्व गाया है। पर ब्रज में एकांगी प्रेम का बहुत महत्तव नहीं माना है। जैसा प्रेम हम भगवान से करते हैं, वैसा ही प्रेम भगवान भी हमसे करते हैं। जब हम भगवान के लिए रोते हैं तो भगवान भी हमारे लिए रोने लगते हैं। जब हमें भगवान के लिए नींद नहीं आती तो भगवान को भी हमारे लिए नींद नहीं आती। यह भागवत में है - तथाहमपि तच्चितो निद्रा च न लभे निशि । जैसा रुक्मिणी का चित्त मुझमें लग गया है, वैसे ही मेरा चित्त भी रुक्मिणी में लग गया है। रात को हमें नींद नहीं आती है। तारे गिन-गिनकर रात बिताता हूँ, रुक्मिणी के लिए। ऐसे भगवान हैं। दूसरे मजहब में ऐसे भगवान नहीं है, जो अपने भक्त के लिए तारे गिनते हों। हम किसी मजहब पर आक्षेप नहीं करते हैं, पर यह निश्चित है कि भगवान हैं ही नहीं ऐसे किसी मजहब में। झर-झर आँखों से आँसू गिर रहे हैं भगवान कृष्ण के। हमारा भगवान प्रेम को एकांगी रखने ही नहीं देता। ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। जब कोई भक्त भगवान का नाम लेने लगता है तो भगवान भी भक्त का नाम लेने लगते हैं। आपने रामचरितमानस में सुना होगा। रामचन्द्र ‘भरत-भरत’ का जप करते हैं। जग जपु राम-राम जपु जेही। जगत् राम-राम का जप करता है और भगवान भरत-भरत का जप करते हैं। कौन बड़ा? ‘राम-राम’ बड़ा है कि ‘भरत-भरत’ बड़ा है? ‘जग जपु राम-राम जपु जेही। जब भगवान देखते हैं कि हमारा भक्त हमारे प्रेम में मग्न हो गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 10.53.2
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