गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-7 : अध्याय 10
प्रवचन : 8
कृपा-पात्र की योग्यता यही होती है कि वह निःसाधन है। कृपा-पात्र की योग्यता साधना की नहीं होती है, कृपा-पात्र की योग्यता तो उसकी निःसाधनता है। नहीं तो आप कुब्जा के पूर्वजन्म की कथा ढूँढें। कुब्जाने पूर्व जन्म में कौन-सी ऐसी साधना की थी कि कुब्जा हो गयी और भगवान ने उसको अपना लिया। अत्यन्त निःसाधन ही नहीं, कु-साधन-सम्पन्न थी कुब्जा। अजामिल था, कु-साधन सम्पन्न। परन्तु नाम ने उसका उद्धार किया। कुब्जा थी अत्यन्त कु-साधन-सम्पन्न किन्तु भगवान के रूप ने उसका उद्धार किया। भगवान के नाम और रूप की यही महिमा है। जैसा नाम वैसा रूप। तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः। नाशायाम्यात्मभावस्थः। कहाँ बैठकर मसाल दिखाते हो? ‘आत्मभावस्थः।’ उसके हृदय में उसके आत्मा के रूप में ही बैठकर और वहीं से अपने ज्ञान का प्रकाशमय दीप लेकर मैं दिखाता हूँ। अज्ञान का नाश हुआ। ‘तमः’ का नाश हुआ। परमात्मा का प्रकाश हुआ। इसमें विभूति भी है और इसमें योग भी है। इसमें अज्ञान का जो नाश है यह विभूति है और इसमें जो नाश करने वाला आत्मभावस्थ है वह योग है। भगवान का हमारे हृदय में बैठ जाना, यह योग है और बैठकर हमारे अज्ञानान्धकार का नाश करना, यह विभूति है। एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वत: । यह संसार भगवान की विभूति है और हमारी आत्मा के रूप में भगवान का योग है, चाहे जहाँ रहो, चाहे जब रहो, चाहे जिस रूप में रहो, चाहे जो करते रहो। प्रेम से करो, उसके लिए करो। ऊँ शान्तिः शान्तिः शान्तिः |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्लोक 10.7
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