गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-7 : अध्याय 10
प्रवचन : 5
बुद्धिज्र्ञानमसंमोहः - यह आध्यात्मिक भाव है हमारे हृदय में। यह योग्यता जिससे प्रकाशित हो - विषय का भी ज्ञान हो और परमात्मा का भी ज्ञान हो, उस ज्ञान की योग्यता के रूप में बुद्धि भी हो। फिर बुद्धि में प्रकाश दिया और असंगता भी दी। यह भ्रम होता है कि हम फँस गये। कभी कोई फँसता नहीं। बचपन, जवानी, बुढ़ापा, दादा-दादी, नाना-नानी, भाई-बन्धु - जब वे अपने साथ थे तो संमोह था कि साथ रहेंगे। पर जब छूट गये तब कठिनाई से, उनका स्मरण होता है। वह पिता जो गोद में खिलाते थे, वह माता जो दूध पिलाती थी, गुरुजी जो बड़े प्रेम से पढ़ाते थे - सब छूट गये। कहाँ से मोह हुआ? संमोह तो कहीं हुआ ही नहीं। पति-पत्नी में बड़ा मोह है, बड़ा प्रेम है, माता-पुत्र में बड़ा प्रेम है - जब आप सोते हैं तो आपका मोह कहाँ जाता है? योग हो जाता है। उस समय आप परमात्मा से मिल जाते हैं। हमने देखा है - जो पहले शत्रु माने जाते थे वे मित्र हो गये। जो मित्र माने जाते थे शत्रु हो गये। बदलती है दुनिया। यह क्षमा है, सत्य है, दम है, शम है - आध्यात्मिक हैं। आध्यात्मिक माने जो हमारे शरीर के भीतर है। ‘आत्मनि एव अध्यात्मम्’। जो हमारे शरीर में ही होते हैं उनका नाम अध्यात्म है। यह लगता है कि इसने सुख दिया - इसने दुःख दिया, देता-वेता कोई नहीं, हमारे मन में जो बैठा हुआ है, वही उभड़कर सामने आ जाता है। सुख-दुःख भीतर से निकलते हैं। बाहर से नहीं आते। बाहर तो जिससे प्रेम हो उसकी मृत्यु पर दुःख नहीं होता; बल्कि कभी-कभी तो मुँह से निकल जाता है - अच्छा हुआ। सबके मुँह से नहीं निकलता। आप तो बड़े सज्जन हैं, आपके मुँह से ऐसा शब्द नहीं निकलता लेकिन भीतर से आ जाता है। भागवत में ऐसा कहा गया है कि बिच्छू, साँप मर जाने से सज्जन पुरुष को भी अच्छा लगता है। सुखं दुःखम् यह बाहर से नहीं, आपके भीतर का विकास है। यदि आप अपने मन को, अन्तःकरण को संयमित कर लें तो सुख देने वाला कोई दूसरा है, ऐसा समझ लें मोह नहीं होगा और दुःख देने वाला कोई दूसरा है, यह समझकर किसी को द्वेष भी नहीं होगा। ये तो हमारे अन्तःकरण की ऐसी ही बनावट है। देखो शीशे का स्वरूप। शीशा चमकता है और कोयले की कालिमा प्रकट होती है और आतसी शीशे पर सूर्य का प्रकाश पड़ता है तो जल उठता है। उस पर रुई डाल दो - आग लग जाती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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