गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-1 : अध्याय 1-4
प्रवचन : 6
इसके अतिरिक्त देवता भी आपकी मदद करते हैं- दैवं चैवात्र पन्चमम् आपको शरीर मिला हुआ है, आपमें कर्तृत्व का भाव जागृत है, आपकी इन्द्रियाँ ठीक-ठीक हैं, तब कहीं जाकर कोई कार्य सम्पन्न होता है। यदि ईश्वरीय बुद्धि आपकी बुद्धि को थोड़ा सहयोग न दे तो वह क्या कर सकेगी। हम लोग अच्छे कामों का श्रेय तो लेते हैं; किन्तु बुरे कामों को भरसक ज़ाहिर ही नहीं होने देते। यदि वह ज़ाहिर हो भी जाये तो कहते हैं कि हमने नहीं किया। एक राजा का बाण शिकार के समय गाय को लग गया और वह मर गयी। गोहत्या ने कहा- राजन्, हमें स्वीकार करो। राजा ने उत्तर दिया कि बाण से गाय मरी है, उसको लगो। बाण ने भी मना कर दिया और कहा कि हाथ ने मारा है। हाथ ने कहा हमारा देवता इन्द्र है, उसी ने मारा है। इन्द्र ने उत्तर दिया कि विष्णु सर्वत्र व्याप्त हैं, अतः हत्या का उत्तरदायित्व उन पर है, उन्हीं के पास जाओ। तब गोहत्या भगवान विष्णु के पास गयी और वे राजा के पास आये। उन्होंने पूछा ‘राजा यह महल किसने बनवाया? राजा ने कहा ‘मैंने।’ इसी प्रकार भगवान विष्णु मन्दिर, धर्मशाला, उद्यान आदि के निर्माता के सम्बन्ध में पूछते गये और राजा ‘मैं-मैं’ कहते गये। इसपर भगवान ने कहा कि क्यों राजा अच्छे-अच्छे काम तो सब तुमने किये हैं, किन्तु गोहत्या मैंने की है? स्वीकार करो गोहत्या मैंने की। अभिमान की जो यह रीति है वह सर्वथा अशुद्ध है। अतः हम-हमारा का अभिमान छोड़कर ही मनुष्य को कर्म करना चाहिए। अब प्रसंग आता है राग-द्वेष का। मनुष्य के जीवन में जो राग-द्वेष हैं, वे ही उसे ग़लत रास्ते पर ले जाते हैं। राग के कारण हम भटक जाते हैं और द्वेष के कारण फँस जाते हैं। सटते हैं राग से और हटते हैं द्वेष से- इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ । तो आप काम भले कीजिये लेकिन यह ध्यान रखिये कि राग-द्वेष के वशीभूत न हों। इसी प्रसंग में एक प्रश्न उठा कि आख़िर मनुष्य बुरा काम करता क्यों है। कभी-कभी तो वह चाहता है कि बुरा काम न करे, फिर भी कर बैठता है। इसमें हेतु क्या है? गीता में यह एक विशेष प्रसंग है, इसकी चर्चा आगे करेंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्लोक-3.34
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