गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-6 : अध्याय 9
प्रवचन : 9
आपने सुना होगा - किसी के घर में गुरुजी आये, दो भाई थे। उन्होंने उनके पाँव बाँट लिये। दाहिना तुम्हारा, बायाँ मेरा। जब रात को सेवा करने लगे तो एक पाँव दूसरे पाँव पर आ गया - बोले राम राम यह तुम्हारा पाँव हमारे पाँव पर क्यों चढ़ता है? उस पाँव को एक चपत लगा दिया। दूसरे ने डण्डा लाकर दूसरे पाँव पर मार दिया। यह है अनजान की सेवा। अनजान लोग जो सेवा करते हैं उसमें भी दुःख पहुँचा देते हैं। हमारी जीभ की तो सेवा की कि हमें खूब स्वाद आ जाये। जीभ की तो सेवा होगा पर पेट का क्या होगी? हार्ट का क्या होगा? डायविटीज का क्या होगा? पल्स क्या होगा? समग्र भगवान की दृष्टि से हमारी सेवा होनी चाहिए। एकांगी सेवा नहीं होनी चाहिए। फल भी क्या मिलेगा? ‘यान्ति देवव्रता देवान्पितृन्यान्ति पितृव्रताः’। यदि पीतृ-पीतृ बोलेंगे तो कभी संस्कृत में श्लोक बनाना हो, तो वह अशुद्ध हो जावेगा। क्योंकि पितृ में ‘पि’ हमेशा लघु ही होता है गुरु नहीं होता पीतृ बोलेंगे तो ‘पी’ गुरु हो जावेगा। ये जितने ‘पी’ वाले अक्षर हैं उनका गुरु नहीं होता है। लघु रहता है। अब यह है कि आपका संकल्प क्या है? देवता भी भगवान के एक अंग हैं। पितर भी भगवान के एक अंग हैं। ये सम्पूर्ण भूत भी भगवान के एक अंग हैं। एक-एक अंग की आप पूजा करें और जो अंगी हो उसको भूल जायें। जिसके ये सारे अंग हैं, उसको भूल जायें तो एक-एक विभाग का अध्यक्ष है, उसकी तो सेवा पूजा हुई परन्तु जो सब विभागों की देखभाल करने वाला है, मालिक है, उसकी सेवा नहीं हुई। ‘यान्ति मद्याजिनोऽपि मां’ - जो भगवान की आराधना करते हैं, उनको तो भगवान की प्राप्ति होती है। लेकिन जो केवल देवता की आराधना करते हैं, ये विभाग हैं। जैसे वरुण देवता की आराधना करते हैं -वे जल के मालिक हैं, अग्नि देवता की आराधना हुई तो वे ताप के मालिक हैं। आप अग्नि देवता को प्रसन्न कर लें और वरुण देवता को प्रसन्न करें तो आपको ताप तो मिल जावेगा लेकिन पानी नहीं मिलेगा। पानी का देवता भी प्रसन्न चाहिए। प्रकाश का देवता आँखों में रहता है सूर्य - आप सूर्य की आराधना करें तो आपको प्रकाश तो मिलेगा। परन्तु आपके लिए अग्नि भी चाहिए उसके लिए ताप भी चाहिए। एअरकण्डीशन भी होना चाहिए। वायु देवता भी प्रसन्न हों, सूर्य देवता भी प्रसन्न हों, अग्नि देवता भी प्रसन्न हों। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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