गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-5 : अध्याय 8
प्रवचन : 3
तो जैसे मैं का अहंका, बहुवचन नहीं होता वैसे ही वासुदेव का भी बहुवचन नहीं होता। वासुदेव तो एक ही है। ये जो कहते हैं कि मुसलमानों का परमात्मा, ईसाइयों का परमात्मा, वैष्णवों का परमात्मा, शैवों का परमात्मा - यह सब मुसलमान, ईसाई, वैष्णव, शैव आदि शब्दों की पूँछ जोड़ी गयी है। परमात्मा तो अनेक नहीं, एक हैं। अब प्रश्न है कि एक को अनेक कैसे बोलते हैं? वासुदेवः सर्वम् कैसे? इसका उत्तर आचार्यों ने दिया है। श्रीरामानुजाचार्य कहते हैं कि वासुदेव का शरीर है सब। श्रीनिम्बाकाचार्य कहते हैं कि वासुदेव का कार्य है सब। श्रीमध्वाचार्य कहते हें कि वासुदेव प्रधान है सब। श्रीबल्लभाचार्य कहते हें वासुदेव ही सब कुछ बन गया है। श्रीशंकराचार्यजी कहते हैं कि सब नहीं है केवल वासुदेव ही है। अब आप लोग सबको वासुदेव के रूप में अनुभव कीजिए, अपनी-अपनी रीति से। जो सब जगह होता है, उसके लिए पन्थ नहीं होते। जो यहाँ नहीं होगा, वहाँ होगा तो वहाँ जाने के लिए पन्थ चाहिए। उसमें सिक्ख पन्थ चाहिए, इस्लाम पन्थ चाहिए, ईसाई पन्थ चाहिए, शैव पन्थ्ज्ञ चाहिए, वैष्णव पन्थ चाहिए। जो सब जगह होता है, उसको पाने के लिए पन्थ नहीं है। उसके तो आप जहाँ हैं, वही पा सकते हैं। अक्षर भी ब्रह्म है, आतमा भी ब्रह्म है, देवता भी ब्रह्म है, भूत भी ब्रह्म है और अधियज्ञ भी ब्रह्म है। इसका अर्थ हुआ कि सब ब्रह्म ही ब्रह्म है। अब आपको स्मरण में बाधा क्या है? जो सब है, वह तो सब जगह स्पष्ट ही है। स्मरण तो उसका करना पड़ता है, जो पहले कभी मिला हो और अब आँख से ओझल हो। जैसे एक शास्त्रीजी कल मिले थे। आज वे हमारे सामने नहीं हैं, उनकी याद आती है। हम जिनकी याद करते थे, आज वे हमारे सामने हों तो इसका नाम स्मृति नहीं है। इसका नाम तो प्रत्यक्ष है। इसी से ऐसा मानते हें कि परमात्मा तो साक्षात् अपरोक्ष है। प्रत्यक्ष है यह पुस्तक, परोक्ष है स्वर्ग और अपरोक्ष है हमारे मन के काम, क्रोध, लोभ, शान्ति, धृति आदि। ये न स्वर्ग के समान परोक्ष हैं, न पुस्तक के समान प्रत्यक्ष हैं। परन्तु इनको भी जानने के लिए सामने देखा जाता है। इसी तरह अपना आपा साक्षात् अपरोक्ष है। वह देखा जाने वाला नहीं है किन्तु उनको देखना है। इसी को साक्षात् अपरोक्ष बोलते हैं। इसको देखने के लिए किसी जरिये की जरूरत नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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