गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-3 : अध्याय 6
प्रवचन : 9
असंशयं महाबाहो मनो दुनिग्रहं चलम्। वे पहले अर्जुन का समर्थन करते हैं। सस्कृत मे इसको ‘सत्यं-तावत्’ इस प्रकार बोलते हैं। मतलब यह कि पहले सामने वाले की बात स्वीकार कीजिए, फिर दोष बताना हो तो बताइये। श्रीकृष्ण अर्जुन को महाबाहो कहकर सम्बोधित करते हैं। उनका आशय यह है कि तुम्हारे हाथ तो बड़े-बड़े हैं। तुम काम बड़-बड़े कर सकते हो। निशाना अच्छा लगा सकते हो। परन्तु तम्हारा मन तुम्हारे निशाने के भीतर अभी आया नहीं। निःसन्देह तुम्हारी बात सच्ची है। मन दुर्निग्रह है और चल है। भगवान ने अर्जुन की सारी बातों को दो शब्दों में ले लिया और फिर उसके लिए साधन बताते हैं। साधन दो नहीं, तीन हैं। यह आप लोग गौर से देखोगे तब मालूम पड़ेगा। जो ऊपर-ऊपर पढ़ते हैं, उनको दो मालूम पड़ते हैं और जो गहराई में प्रवेश करते हैं उनको तीन मालूम पड़ते हैं- अभ्यासेन तु कौन्ते वैराग्येण च गृह्यते। एक तो है अभ्यास। साधारण संस्कृत में अभ्यास का अर्थ होता है दुहराना। जैसे हम किसी ग्रन्थ का, श्लोक का अभ्यास करते हैं। बार-बार दुहराते हैं तो जुबान पर बैठ जाता है। परन्तु यहाँ मन के अभ्यास की बात है। योग में अभ्यास की बड़ी महिमा है - आसन का अभ्यास, प्राणायाम का अभ्यास, प्रत्याहार का अभ्यास आदि। तत्रस्थितौ यत्नोऽभ्यासः। योगदर्शन कहता है कि अपने लक्ष्ये में स्थिति के लिए प्रयत्न का नाम अभ्यास है। आप जिस स्थिति को पाना चाहते हैं, उसको अपने मन में बारम्बार दुहराइये और बारम्बार अपने कूँची से, मन की तूलिका से आकार को मन से स्पर्श कीजिए। यदि मन को- न किंचिदपि चिन्तयेत् की स्थिति में ले जाना चाहते हैं तो ‘न किंचिदपि चिन्तयेत्’ का बारम्बार स्पर्श कीजिए। इसका नाम होता है अभ्यास। जो लक्ष्य आप प्राप्त करना चाहते हैं उसको अपने मन से बार-बार त्वाच् पत्यक्ष कीजिए, छूइये। त्वाच् प्रत्यक्ष माने छूना, टच करना। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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