गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-3 : अध्याय 6
प्रवचन : 9
जैसे कोढ़ सुन्दर शरीर को नष्ट कर देता है, इसी प्रकार लोभ बड़े-बड़े सद्गुणों को दबा देता है, भ्रष्ट कर देता है। बुद्धि को स्वार्थ और कामवासना - भोगवासना तो भ्रष्ट करती ही है, धर्मगत मूर्खता भी बुद्धि को भ्रष्ट करती है। तो अर्जुन ने भगवान से कहा कि आपने साम्ययोग का उपदेश तो दिया, परन्तु मेरा मन बड़ा चंचल है-
अर्जुन कहते हैं कि मन इतना चंचल है कि वह भीतर ही भीतर दिल को हीढ़ देता है, मथन कर देता है। उसको दबाना इसलिए कठिन है कि यह बड़ा बलवान् है। धीरे-धीरे अभ्यास क प्रयास करने पर यह अपनी स्थिति पर बिलकुल दृढ़ हो जाता है। जहाँ ससट गया है वहाँ से हटना ही नहीं चाहता। अब यहाँ एक बात पर आप ध्यान दो: जिसको स्वार्थ का अभ्यास होता है, वह अपने भाई से भी स्वार्थी हो जाता है और उसको हानि पहुँचाकर भी अपना स्वार्थ पूरा करता है। लोग अपने बेटे से, अपनी पत्नी से, अपने माँ-बाप से भी स्वार्थी हो जाते हैं। जिसकी बुद्धि में स्वार्थ प्रवेश हो गया, वह सबके साथ स्वार्थ का व्यवहार करता है। उसके सामने स्वार्थ की पूर्ति के लिए अपने-पराये का कोई भेद नहीं रहता। तो, स्वार्थ की आदत अपने भीतर है। वह यह नहीं देखती कि हम किसके साथ स्वार्थ कर रहे हैं। जैसे आग यह नहीं देखती कि वह किसको जला रही है, सूर्य यह नहीं देखता कि वह किसको प्रकाश दे रहा है और धुँआ यह नहीं देखता कि वह किसकी आँख में घुस रहा है, वैसे ही स्वार्थ व्यवहार करने में बड़ा दृढ़ है। तो इसको वश में कैसे किया जाये? तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्। श्रीकृष्ण ने कहा कि अर्जुन, सच है, मन का निग्रह बड़ा कठिन है। मैंने देखा है, कई बड़े-बड़े लोग सामने वाले की बात पहले ‘नहीं’ कहकर काट देते हैं और बाद में फिर उसीका समर्थन करते हैं। उनको कहना यही होता है कि यह ठीक है, लेकिन उनकी जुबान आदत से लाचार है। पहले बोलते हैं नहीं, नहीं फिर उसीको दुहराते हैं, उसी को मानते हैं, उसी को ठीक समझते हैं। किन्तु श्रीकृष्ण के बोलने की शैली देखिए- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 6.34
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