गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-3 : अध्याय 6
प्रवचन : 3
जब त्याग आपके अन्तर में निवास करता है तो आप अपने में से हीनता का भाव निकाल दीजिए। दो दिन पहले आपको सुनाया था कि केवल पत्नी का परित्याग करने से, अग्निस्पर्श का परित्याग करने से कोई संन्यासी नहीं हो जाता। केवल कर्मत्याग करने से कोई समाधिस्थ योगी नहीं हो सकता। इसके लिए भीतर एक ऐसी वस्तु रहती है, जिसके सम्बन्ध में सतत सावधान होने की आवश्कता है-
यह आपको सुना चुका हूँ कि कर्म योग करते हुए भी, बुद्धि-योग करते हुए भी यदि आप केवल फल-ही-फल चाहते है तो कृपण हैं- कृपणाः फलहेतवः। आप कर्म करें, कपड़ा बनावें, लोहा बनावें; परन्तु जब वस्तु बने तब उसको केवल अपने लिए मत रखें। उसे सबके लिए फैला दें। ऐसा करने पर आप द्वारा निर्मित वस्तुओं का उपयोग व्यक्तिगत उत्कर्ष के लिए न होकर विश्वात्मा प्रभु की सेवा के लिए हो जायेगा। अब गीता की एक विशेषता देखो। यज्ञ-याग करने वाले कर्म-काण्डी लोगों पर ध्यान दो। ऐसा मत समझना कि मैं किसी दूसरे कर्मकाण्डी की बात कह रहा हूँ। मैं भी भूतपूर्व कर्मकाण्डी हूँ। मुझे कर्मकाण्ड के विवि-विधान की जानकारी है। जानकारी ही नहीं उनका क्रियात्मक अनुभव है। मैंने स्वयं कर्मकाण्ड के अनुष्ठान किये - कराये हैं। यहाँ भगवान कर्मकाण्डी-धर्म और गीता-धर्म इन दोनों का फ़र्क बता रहे हैं। दोनों में विलक्षणता क्या है? जब किसी देवता की पूजा करनी होती है, होम करना होता है, स्वर्ग की प्राप्ति के लिए यज्ञ-याग करना होता है तो उसमें एक संकल्प करना पड़ता है। मैं अमुक गोत्र वाला अमुक का आत्मज अमुक व्यक्ति स्वर्गादि सुख की प्राप्ति के लिए यह यज्ञ कर रहा हूँ। आरोग्य की प्रप्ति के लिए, दीर्घायु की प्राप्ति के लिए, पुत्र की प्राप्ति के लिए, व्यक्तिगत सम्पदा की प्राप्ति के लिए यह अनुष्ठान कर रहा हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 6.2
संबंधित लेख
क्रमांक | प्रवचन | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज