गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-13 : अध्याय 16
प्रवचन : 8
श्वेतकेतु ने कहा, ‘पिता जी यह तो मैंने नहीं पढ़ा। हमारे गुरु को यदि मालूम होता, ऐसा कुछ है, तो हमको जरूर बताते।’ नहीं बेटा-एक ऐसी वस्तु है, जिसके ज्ञान से सबका ज्ञान हो जाता है। ऐसा कैसे हो सकता है? जैसे लोहे के ज्ञान से सब औजार, जैसे सोने के ज्ञान से सब आभूषण, जैसे मिट्टी के ज्ञान से सब मिट्टी के पात्र, तत्तवः ज्ञात हो जाते हैं -नाम-रूप् का जो व्याकरण है, उसको अलग करके देखो। सब एक है। तत्त्व एक है। इसी प्रकार इस विश्व सृष्टि का तत्त्व एक है। वह कौन है? सदेव सौम्येदमग्र आसीत एक सन्मात्र है और तत्त्वमसि-वही तुम हो।
इसलिए जो ऊर्ध्वमूल सहित समग्र अश्वत्थ को जान लेता है-हो गया इसमें मूल सहित अश्वत्थ का ज्ञान। माने एक के ज्ञान से सर्व का ज्ञान। इसलिए ‘यस्तं वेद स वेदवित’ और यहाँ ‘वेदविदेवचाहं मैं ही वेदवेत्ता हूँ। और ‘स सर्वविद् भजति मां, सर्वभावेन भारत’- यह सर्ववित हो जाता है। और सर्वरूप में वह परमात्मा को देखता है। ये देखो श्याम! ये देखो श्याम। श्याम-ही-श्याम! श्याम के सिवाय और कुछ है ही नहीं।
यही है किसी-न-किसी रूप में श्याम। सर्वरूप मे श्याम। उसको अपने हृदय से लगाने के लिए हमारा हृदय व्याकुल हो रहा है। हिय उमहत है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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