गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-13 : अध्याय 16
प्रवचन : 8
हाँ सो तो है, पर वह द्रष्टा देश, काल, द्रव्य की परिच्छेद-भेद-कल्पना से सर्वथा विनिर्मुक्त-दिक्कालादिके अत्यन्ताभाव से उपलक्षित, अद्वितीय स्वरूप है। यह बात बिना वेद के मालूम नहीं पड़ सकती। यह प्रत्यक्ष अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति, अनुपलब्धि, सम्भव, चेष्टा-किसी भी प्रमाण के द्वारा इसका साक्षात्कार नहीं हो सकता। इसके लिए उपनिषद् है, जो बताती है, अरे तू किसको ढूँढ रहा है? तूँ ही तो है- ‘अन्वेष्टव्यमात्मविज्ञानात’। जिसको ढूँढ रहे हो उसको पहचानते नहीं हो, तब तक तुम ढूँढने वाले बने हो। जहाँ वह मिला, जिसको तुम ढूँढ रहे हो-तुम देखते हो कि ढूँढने वाले तुम ही हो।
अच्छा तो वेद मे कोई छोटा-सा हिस्सा होगा, जिससे परमात्मा का ज्ञान होगा। बोले नहीं ‘सर्वैरेव वेदैरहमेव वेद्यः’। सम्पूर्ण वेदों के द्वारा मैं ही जाना जाता हूँ। तब वेद ही वेद रहा-नहीं, वेदान्तकृत। वेद का जो अन्तिम सिद्धान्त है उसको बनाने वाला मैं हूँ। वेदान्त के सिद्धान्त से भी विलक्षण।
वेद का जहाँ अन्त हो जाता है, वहाँ मैं हूँ। वेदान्त के सिद्धान्त का निश्चय करने वाला मैं हूँ। और मैं ही वेदवित हूँ। प्रश्न है-एक के विज्ञान से सर्वका विज्ञान-सम्पूर्ण वेदों क तात्पर्य है। एक ऐसी वस्तु है, जिसके जान लेने पर कुछ भी जानना बाकी नहीं रहता। सब कुछ जान लिया जाता है। श्वेतकेतु को अपने पढ़ने का बड़ा भारी अभिमान हो गया था। मैं पढ़-लिखकर आया हूँ। बाप ने देखा कि भाई, पढ़ने-लिखने से तो जीवन में विनय आता है, नम्रता आती है। यह हमारा बेटा सब कुछ पढ़-लिखकर आया, सर्वज्ञ होकर आया और इतना उद्धत! सिर नहीं झुकाया है, प्रणाम नहीं करता है। सर्वज्ञ बना बैठा है। बोले बेटा, तुम सब कुछ पढ़-लिखकर तो आये, क्या वह वस्तु तुम जानकर आये, जिस एक के ज्ञान से सबका ज्ञान हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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