गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-12 : अध्याय 15
स्वागत-भाषणः
गीता स्वयं पद्मनाभ के श्रीमुख से विनिःसृत है और उनकी अपनी वाणी है, उनका अपना वचन है। गीता स्वयं प्रश्न और उत्तरों पर ही आधारित है। आप पहले ही श्लोक में देखेंगे कि ‘किमकुर्वत संजय।’ धृतराष्ट्र पूछते हैं कि क्या किया? यहीं से प्रश्न चालू होता है और सारी गीता वहीं से उत्तर है। इसके बाद भी जगह-जगह अर्जुन पूछते हैं और भगवान जवाब देते हैं। भगवान पूछते हैं, अर्जुन भी जबाब देते हैं। अर्जुन ने कहा ‘पृच्छामि त्वां’ मैं पूछ रहा हूँ और उसके बाद भगवान सारा उपदेश देते हैं। यह प्रणाली गीता सम्मत है। और श्रोता भी इसमें शरीक हो जाते हैं। श्रोताओं के भ्रम-निवारण का यह सुन्दर संयोग है। अठारहवें अध्याय के बहत्तरवें श्लोक में भगवान ने यही कहा है कि-कच्चिदेतछुतं पार्थ त्वयैकाग्रेणचेता। हमें एकाग्र चित्त से सुनना चाहिए। भगवान ने अर्जुन से पूछा मैंने जो कहा वह तुमने एकाग्र चित्त से सुना तो-तब अर्जुन जवाब देते हैं-नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत। तो मैं निवेदन करना चाहूँगा कि हम जितना ध्यान से सुनेंगे उतना ही हमें लाभ होगा। चौदहवें अध्याय का हम अध्ययन घर पर करके आवें तो इसका अनुसरण करने में, समझने में बड़ी सुविधा होगी। मैं महाराजजी को पुनः प्रणाम करता हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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