गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-10 : अध्याय 13
प्रवचन : 1
ये तो सब महात्माओं की बात हुई। अब जरा व्यवहार की बात देखो- शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्। काम-क्रोध के जो वश में नहीं होता है, जिसको काम नचाता नहीं, जिसको क्रोध जलाता नहीं, उसका नाम युक्त है। काम करते रहो, फँसो मत। यह तो है सब युक्त, लेकिन ‘अतिशयेन युक्तः युक्ततरः;’ अतिशयेन युक्ततरः युक्ततमः’। जो अतिशय युक्त है वह कौन है? ‘ते मे युक्ततमा मताः’। वह युक्ततम है। योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।[2] अपनी अन्तरात्मा को मेरे शरीर में डाल दिया। चतुर्भुज हो गया भाई! वह तो मुरलीमनोहर हो गया। वह तो अन्तर्यामी नारायण हो गया। वह तो विराट हो गया जिसने अपने मन को भगवान में मिला दिया-‘ते मे युक्ततमा मताः’। ‘मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते। श्रद्धया परयोपेताः ते मे युक्ततमा मताः।’ भगवान कहते हैं-इनसे बड़ा मुझसे कोई मिला हुआ दूसरा नहीं है-सबसे बड़े वही हैं। वही योगवित्तम हैं। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | प्रवचन | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज