गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-9 : अध्याय 12
प्रवचन : 5
तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङक्षव राज्यं समृद्धम्। इसलिए अर्जुन क्या बैठ गये? विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः।[1] मन में यह आग्रह है कि ये सब जिन्दा रहें। मन में यह आग्रह है कि धर्मराज्य की स्थापना हो। मन में यह आग्रह है कि मैं बड़ा भारी वीर हूँ। और मन में बड़ा भारी आग्रह है कि मैं बड़ा भारी ज्ञानी हूँ-बड़ा भारी समझदार हूँ। हमको लड़ना नहीं चाहिए। धर्मराज्य की स्थापना भी होनी चाहिए। हमको लड़ना भी नहीं चाहिए-इधर कोई मरना भी नहीं चाहिए। यह क्या हुआ। यह तो अपनी ही वृत्तियों में लड़ाई है। शाम को एक सज्जन सोचने लगे कि सन्ध्यावन्दन करें। सात्त्विक वृत्ति आयी। फिर मन में आया कि नहीं, आज क्लब में चलें। सन्ध्यावन्दन तो लौटकर कर लेंगे। क्या जल्दी है? बोले भाई-क्लब नहीं, सिनेमा ही देख आवें। अच्छा सिनेमा क्या देखेंगे-अब सो जायँ। तमोगुणी वृत्ति आ गयी। अब इतनी वृत्तियों का परस्पर विरोध’ हो गया-‘गुणवृत्तिविरोधाच्च’[2] जिसके मन में सत्त्वगुणी, रजोगुणी, तमोगुणी-वृत्तियों का इतना संघर्ष मचा हुआ है वह चित्त संस्कार के किस काम में सफल होगा। निर्द्धन्द होकर कटु सोचना पड़ता है। जैसे बाघ अपने शिकार पर कूद पड़ता है। जैसे संन्यासी अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सबको छोड़कर चल देता है। वैसे साहस के साथ उत्साह के साथ अपने लक्ष्य पर टूट पड़ना चाहिए। बैठने से क्या होगा? ‘ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे’। बाबा यदि तुम नहीं लड़ोगे तब भी ये कोई नहीं रहेंगे। इसलिए तुम उठो, देखो मैं तुम्हारा मित्र हूँ-सखा हूँ। तुम्हें यश देना चाहता हूँ। विश्व रूप से मैं बोल रहा हूँ कि शत्रुओं को तुम जीत लोगे। जो सताये उसका नाम शत्रु होता है। ‘शातनात् शत्रुः’। इनको जीत लो और बहुत बड़े राज्य का भोग करो-‘समृद्धं राज्यं भुंक्ष्व’-यह मत देखो कि जब पिण्डदान का लोप हो जायगा तो हमारे पितर लोग जो स्वर्ग में हैं वे भूखे-प्यासे मर जायेंगे। अर्जुन को यह भी तो फिकर लगी थी न कि पितरों का क्या होगा-‘लुप्तपिण्डोदकत्र्तियाः’।[3] यह फिकर मत करो कि स्वर्ग में उन्हें खाना मिलेगा कि नहीं! वे भी अपना पुण्य लेकर जायेंगे-उन्हें खाने-पीने को मिल जायगा। तुम यह तो देखो कि यह जो शत्रु तुम्हारे सामने तुम्हें कष्ट दे रहे हैं, उन्हें नष्ट करो और समृद्ध राज्य, निष्कंटक राज्य तुम्हारे सामने है, उसका भोग करो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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