गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-9 : अध्याय 12
प्रवचन : 4
मनुष्य की दृष्टि भी निर्निमेष हमेशा सजग रहनी चाहिए। जिसको ताप देना हो तपा लो। आग पर चढ़ाकर गला लो। उसको पीटना से पीट लो। आभूषण बनाना हो, बना लो। बेचना हो बेच लो। उसमें ताप भी है, प्रकाश भी है। आह्लाद भी है और प्रकाश भी है। ये ही भगवान की आँखें हैं, जो हमेशा हमको देखने को मिलती हैं। पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रम्।[1] भगवान का मुख क्या है? अग्नि। ये अग्नि देवता हमेशा लोगों को भोजन देते हैं। भोजन करते भी हैं और भोजन देते भी हैं। यह अग्नि की विशेषता है। ‘अग्रे नयति’। आगे बढ़ने का साधन अग्नि है। अग्नि एक तो होती है भौतिक अग्नि जो लकड़ी आदि से जलती है और एक होती है जठराग्नि जो पित्त में रहकर अन्न को पचाती है। और एक होती है बाडवाग्नि जो जल में-प्रकट होती है। एक है वैद्युताग्नि जो आकाश में बिजली के रूप में गिरती है। अग्नि भगवान का मुख है। वे बोलते भी इसी से हैं और भोजन भी इसी से करते हैं-और भोजन भी इसी से पकाते हैं। ये आजकल जितनी फैक्टिरियाँ-कारखाने चलते हैं-कोई कपड़ा बनाकर खाता है, कोई सीमेंट बनाकर खाता है-खाये ही जाता है। यह भोजन अग्नि की शक्ति से ही मिलता है। अग्नि का विभाग है विद्युत् और अग्नि का विभाग है काष्ठादि से प्रज्वलित होना, पेट में रहने वाली अग्नि, जल में बनने वाली अग्नि। जल के वेग से विद्युत् की रचना हाती है। यह भगवान का सब बल्ब है। अग्नि के द्वारा वे बोलते हैं। और अग्नि के द्वारा ही मनुष्य को आगे बढ़ाते हैं। ‘अग्ने नयति इति अग्निः’। जो हमको आगे बढ़ावे उसका नाम अग्नि होता है। आप लोग ईशावस्य उपनिषद् कभी पढ़ते होंगे। ‘अग्ने नय सुपथाराये’ हे अग्नि देवता हमको सुन्दर मार्ग से ले चलो, जिसमें हम धन-संपदा से परिपूर्ण हो जायें ‘राये’ माने जो धन हम चाहते हैं, उस संपदा की प्राप्ति के लिए तुम हमको आगे ले चलो। ‘हुताशनं स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्’ ये पानी से बना विश्व यदि तपाया न जाय, तप्त न हो तो उपयोगी होगा ही नहीं। असल में यदि मनुष्य के या प्राणियों के जीवन में दुःख की, ताप की सृष्टि न होती, रेलगाड़ी में अगर भाप पैदा न की जाती तो वह आगे कैसे बढ़ती? यह ताप मनुष्य के जीवन में आगे बढ़ने के लिए शक्ति और प्रेरणा देता है। ‘स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्’। जहाँ कहीं गरती मालूम पड़ी कि ठण्ड में जाने की रुचि पैदा हो जाती है। तो भगवान तपा-तपाकर इस विश्व को पक्का करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 11.15
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