गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-8 : अध्याय 11
प्रवचन : 8
यह तो भगवद्रूप हूँ और कुछ अपनी-अपनी जाति में उत्तम होने के कारण विभूति के रूप में कहे गये हैं। जैसे ‘स्थावराणां हिमालयः’[1] नराणां च नराधिपम[2] ये अपनी-अपनी जाति में श्रेष्ठ होने के लिए कहे गये हैं। कुछ को विभूति इसलिए बताया है कि वे उत्तमत्वापादक हैं। माने हमको उत्तम बना देने वाले हैं-जो उस विभूति का आश्रय लेगा वह उत्तम हो जायेगा। तो भगवद्रूप को भी विभूति बताया गया उपासना के लिए और जो अपनी-अपनी जाति में उत्तम हैं, उनको भी विभूति बताया गया। और जो उत्तमत्वापादक हैं-उत्तमत्वापादक माने जैसे-यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि’[3] अब यह जप यज्ञ को भगवान की विभूति क्यों कहते हैं? इसलिए कि यदि आप जप यज्ञ का आश्रय लें तो आप उत्तम हो जावेंगे। आप स्वयं भगवद्विभूतिरूप हो जायेंगे। उत्तमत्वापादक, जो इस यज्ञ का आश्रय लेगा उसको यह यज्ञ उत्तम बना देगा। इसलिए इसको विभूति कहा गया। हम विभूतियों का केवल उद्देश्यमात्र सुनाते हैं। अब जप-यज्ञ क्यों है और वह भगवान की विभूति क्यों है? यदि जप का आश्रय लें तो उत्तम हो जाते हैं? हम स्वयं उत्तम हो जाते हैं? इसलिए जप-यज्ञ-भगवान की विभूति है। हमारे बाबा बोलते थे- जपात् सिद्धिः जपात् सिद्धिः जपात् सिद्धिर्न संशयः। आपको कोई भी सिद्धि प्राप्त करना हो तो जप कीजिये, जप कीजिये, जप कीजिये। वे अभागे लोग हैं जिनका जप पर विश्वास नहीं है। कोई भी सिद्धि जप के द्वारा प्राप्त हो सकती है। समाधि लगाने से जो सिद्धि होती है सो, योगाभ्यास करने से जो सिद्धि होती है सो, क्योंकि जब हम भगवान के नाम का, मन्त्र का जप करते हैं, जप दोनों का होता है-मन्त्र का भी होता है और नाम का भी होता है। नाम अलग वस्तु है और मन्त्र अलग वस्तु है। जप को जप क्यों कहते हैं-जन्मनः पाति। जो जन्म-मरण के चक्कर से छुड़ा दे। उसका नाम होता है जप। अब आओ आप भगवान का नाम लो। पाठ दूसरी चीज है, उसमें अनेक शब्दों का उच्चारण होता है और जप दूसरी चीज हैं, उसमें एक छोटा-सा शब्द या वाक्य ले लो और उसको दुहराते जाओ। ‘जपश्रान्तश्चरेद् ध्यानम्’। जब जप करते थक जायें तब ध्यान करें। ‘ध्यानश्रान्तश्चरेज्जपः।’ जब ध्यान करते-करते थक जायें तब जप करें। ‘जपध्यानपरिश्रान्तो ह्यात्मतत्त्वं विचारयेत्।’ जब जप और ध्यान दोनों में प्रवृत्ति शिथिल हो जाय तो अपने स्वरूप का विचार करना चाहिए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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