गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-8 : अध्याय 11
प्रवचन : 8
कर्म भी किसी के साथ रहते हैं तो वे भी अन्तरंग कारण है। ईश्वर भी अन्तर्यामी होने से अन्तरंग कारण है। और माया? माया तो आत्मा में रहती ही है। इसलिए माया भी अन्तरंग कारण है। लेकिन ये सब-के-सब, जब आत्मा की ब्रह्मरूपता का बोध होता है तो कारण और कार्यभाव ये दोनों विनष्ट हो जाते हैं। दर्शन शास्त्र की दृष्टि से संसार का, विश्व का, सृष्टि का जो उपादान है वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म है। इसी से हमारे सिद्धान्त में मूर्तिपूजा भी होती है क्योंकि उसमें भी उपादान सच्चिदानन्दघन ब्रह्म ही हैं। मत्स्य, कच्छप, वराह आदि आकृतियाँ होती हैं, शक्ल-सूरत होती है, लेकिन उपादान रूप से उसमें ब्रह्म ही है। देखो भाई, बात दो टूक करनी चाहिए। यह बात संसार के किसी मजहब में नहीं है। न इसाई में है, न मुसलमान में है, न बौद्ध में है, न जैन में है, न पारसी में है, न सिक्ख में है। यह सर्वात्मा, सर्वकारण-कारण सर्वोपादान, अभिन्न निमित्तोपादान कारण हमारे परमात्मा है। इसी से हमारी मूर्ति-पूजा भी है, अवतार भी है। श्राद्ध भी है, गौ-पूजा भी है, अश्वत्थ-पूजा भी है। अब यह बात आप यदि ध्यान में न लोगे और खुदा को निकालोगे कुरान में-से और ईश्वर निकालोगे वाइबिल में-से और फिर कहोगे इसमें मूर्तिपूजा कहाँ हैं? सत्यार्थ प्रकाश में-से जो ईश्वर निकालेगा उसमें मूर्तिपूजा, अवतार, श्राद्ध कुछ नहीं होगा। लेकिन वेद, शास्त्र, पुराण में-से जो ईश्वर निकलेगा उसमें अवतार, मूर्तिपूजा, श्राद्ध, वर्णाश्रम सब-का-सब उसमें-से निकल आयेगा क्योंकि यह सारा-का-सारा परमात्मा का ही विलास है। यह जो हम देखते हैं कि राम क्षत्रिय के रूप में है। और श्रीकृष्ण यादव के रूप में हैं और मत्स्य मछली के रूप में-यह आकार मात्र हैं, यह कोई कर्मजन्य या वासनाजन्य या प्रकृति आदि उपादानों से जन्य नहीं है। यह तो साक्षात् परब्रह्म परमात्मा का स्वरूप है। इसलिए जब हम भगवान के रूप का चिन्तन करने लगते हैं तब सम्पूर्ण विश्व-सृष्टि परमात्मा का रूप निकल आती है। यह केवल विभूति जो है-इसकी चर्चा इसलिए की कि ये हमारे हृदय में जो राग-द्वेष हैं, जो शत्रु-मित्र हैं, जो गुण-दोष हैं ये सारे कलंक-पंक का प्रक्षालन करके और शुद्ध परमात्मा के साथ मिला देने के लिए हैं। अब ये जो विभूतियों का वर्णन है वह एक तो भगवान के रूप का ही विभूति के रूप में वर्णन है। जैसे मैं वृष्णिओं में वासुदेव हूँ, ‘वृष्णीनां वासुदेवोस्मि’[1] जैसे ‘रामः शस्त्रभृतामहम्’[2]-शस्त्रधारियों में मैं राम हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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