गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-8 : अध्याय 11
प्रवचन : 7
नहीं महाराज, हमारी बड़ी जिज्ञासा है। आपको तो बताने की जरूरत नहीं पर आप हम पर कृपा करके बता दीजिये। हमें जरूरत है। बोले- अच्छा तुमको कैसा लगता है? बोले- हमको तो ऐसे लगता है कि सृष्टि हमेशा से ऐसी ही है। भलेमानुष, सृष्टि रोज तो बदल रही है, हमेशा से ऐसी ही है-ऐसा कैसे मानते हो? बोले महाराज, परमाणुओं से जुड़कर बनी होगी? बोले- परमाणु जुड़ेंगे कैसे? वे तो निवयव होते हैं। उनके अंग नहीं होते तो वे जुड़ेंगे कैसे? अच्छा महाराज, चित्त से सृष्टि हुई होगी? चित्त की सृष्टि तो टिकाऊ नहीं होती। स्वप्न में सृष्टि होती है, टूट जाती है। अच्छा, तो शून्य से सृष्टि हुई होगी? अच्छा जी, प्रकृति से सृष्टि हुई होगी तो प्रकृति नित्य और बदलने वाली भी हो, यह कैसे हो सकता है? अच्छा, तो ईश्वर से सृष्टि हुई होगी? ईश्वर को क्या पड़ी है कि वह सृष्टि करने आ गया। अब वह जिज्ञासु जितने सृष्टि की उत्पत्ति के प्रकार बतावे, वह महात्मा उसका खण्डन करते जावें। यह सृष्टि क्या है? बोले जो मैं हूँ सो ही सृष्टि है। देखो! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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