गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-8 : अध्याय 11
प्रवचन : 7
दृष्टि बनी रहनी चाहिए। और अपनी दृष्टि में जब वासना मिल जाती है तब वह गन्दी हो जाती है और जब हमारी दृष्टि में वासना का मेल नहीं होता है तब स्वयं भगवान बोलते हैं। अद्भुत लीला है-आप देखें दोनों ओर से भगवान अपना स्वरूप बताते हैं। ‘अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।’ तब यह जगत क्या है? यह संसार क्या है? यह प्रश्न हुआ। अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च। ये जो संसार के पदार्थ, प्राणी दीख रहे हैं, इनका आदि, मध्य, अन्त नहीं है। इसका अर्थ है कि जगत के रूप में भी मैं ही हूँ और आत्मा के रूप में भी मैं हूँ। तब? जहाँ जाओ वहाँ परमात्मा, जहाँ रहो वहाँ परमात्मा। जहाँ पहुँचो वहाँ परमात्मा। फिर तो फ़िक्र करने की कोई जरूरत ही नहीं है। बेफ़िक्र अपने कर्त्तव्य का पालन करते रहो। अब दृष्टि यहाँ क्या है? दृष्टि है-आत्मा ही परमात्मा है। यह तो देह के बन्धन में, वासनाओं के बन्धन में आ जाने के कारण हम ठीक-ठीक नहीं देख पाते हैं। एक बार महात्माओं की पंचायत जुड़ी। 8-10 अच्छे-अच्छे महात्मा गंगा किनारे बैठ गये। श्रीउड़िया बाबा ने 12 घंटे का आसन जमाया। चर्चा हो रही थी कि हम यह कैसे समझें कि हमारे मन में जो यह बात आयी है वह ईश्वर-प्रेरणा है या हमारी वासना है। आप समझ सकते हैं। यदि शत्रु को नीचा दिखाने के लिए आपके भीतर कोई प्रेरणा आती है तो उसमें वासना है और अपने सगे-सम्बन्धियों का स्वार्थ सिद्ध करने के लिए कोई प्रेरणा आती है तो उसमें भी वासना है। जब कभी हमारा अन्तःकरण शुद्ध होता है-ऐसे क्षण जीवन में कभी-कभी आते हैं-जब वासनाएँ शान्त हो जाती हैं, जब चंचलताएँ मिट जाती हैं, जब भीतर का प्रकाश निर्बाध रूप से अपने जीवन में प्रकट होने लगता है-उस समय ईश्वर की वाणी सुनायी पड़ती है। उस समय ईश्वर की प्रेरणा का अनुभव होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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