श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
श्रीलीलाशुक ने पुनः प्रार्थना की- तुम्हारे मुखकमल पर जो भावयुक्त लीला आदि प्रकट होती हैं- अर्थात् काममद उद्गार (व्यक्त) करने वाली ईषत् हास्यभरी भ्रूभंगिमा विशेष- मेरा हृदय उन-उन लीलाओं को भी उन-उन भावों के साथ वहन करे। वह कैसे? तुम्हारे माधुर्य से मिश्रित या माधुर्य द्वारा उत्पादित वेणुगीत की नव-नव गतियों से युक्त लीलायें धारावाहिक रूप से मेरे हृदय में प्रवाहित हों। श्रील भट्ट गोस्वामिपाद कहते हैं- अब श्रीलीलाशुक परममधुर श्रीकृष्णलीलाओं के अविच्छिन्न (अबाध) प्रवाह के रूप में स्फूर्ति प्राप्त करने के लिए प्रार्थना कर रहे हैं। हे कृष्ण तुम्हारी वही सब लीलायें मेरे हृदय में धारावाहिक रूप से प्रवाहित हों। कौन-कौन सी लीलायें? यही बता रहे हैं- धन्यात्मागण- जिनकी आत्मायें धन्य हैं वे लोग, अर्थात् वे प्रेमिकगण जिनके मानस में साक्षात्कार का अनुभव विद्यमान है- ऐसे लोग तुम्हारी जिन लीलाओं का, जिस चरितामृत का रसना से लेहन करते हैं। अर्थात् रसना के साथ तादात्म्य स्थापित किए मन द्वारा भावाविष्ट अवस्था में आस्वादन करते हैं। फिर ‘शैशवचापलव्यतिकरा’- जिन लीलाओं में शैशव है (शिशुसंबंधी तारुण्य है), अर्थात् कैशोर है (कैशोर में शिशु सुलभ तरुणाई व्यक्त होती है) और इसी कारण चपलता है। उस चपलता द्वारा जो चेष्टायें जो क्रियाकलाप प्रकट होते हैं। फिर ‘राधावरोधोन्मुखाः’ जो चेष्टायें श्रीराधा के अवरोध से जुड़ी हैं (राधारानी का पथ रोकने से जुड़ी हैं) या उनके ग्रहणोन्मुख हैं (उन्हें पकड़ने को उद्यत हैं) फिर ‘या वा भावितवेणुगीतगतयो लीला मुखाम्भोरुहे’ जो लीलायें तुम्हारे मुखकमल पर झलकती हैं- वेणुगीतगति अर्थात् गमक आदि के रूप में जो भाववयुक्त लीलायें श्रीमुख पर परिलक्षित होती हैं- वही मेरे हृदय में धारावाहिक रूप से प्रवाहित हों।।106।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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