श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
‘जब तक वृन्दावनवासी जीव-जन्तु, स्थावरजंगम मात्र में सच्चिदानन्दघनरूपता बुद्धि उत्पन्न नहीं होती, तब तक व्रजवास करने पर भी उस अपराध के कारण परात्पर पदवी श्रीराधादाम्य प्राप्त नहीं होता।’
‘जैसे ही श्रीवृन्दावनवासी स्थावर- जंगम प्राणी मात्र में निष्कपट भाव से सच्चिदानन्दघनमय बुद्धि होती है, वह व्यक्ति तभी राधारानी की प्रिय सेवा के योग्य श्रीराधा की प्रिय किंकरी के रूप में प्रकाशित होता है।’ श्रील भट्ट गोस्वामिपदा कहते हैं- श्रीकृष्ण लीलाशुक से कह रहे हैं- तो तुम्हारी मनोहर वस्तु क्या है, वही बताओ। इसके उत्तर में श्रीलीलाशुक बोले- हे देव ! जो क्रीड़ा करते हैं, प्रकाशित होते हैं, स्वयं आनन्द स्वरूप होकर अन्य को भी आनन्द-उन्मत्त करते हैं वे ही देव हैं। वही देव श्रीकृष्ण जययुक्त हों। सर्वोत्कृष्ट रूप में आकार नयनगोचर हों। कैसे? त्रिलोक में सौभाग्य- आस्पद व्रजबालाओं का कस्तूरी मकरांकुर जिस विग्रह से लग्न (लगा हुआ) है; उन लोगों के आलिंगन आदि के समय वह सब (अंगराग) श्रीकृष्ण के अंग से लग जाता है। अतएव जिनका विलास व्रजांगनाओं की अनंगकेलि (कामक्रीड़ा) द्वारा लालित या पोषित है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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