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- कल्पवृक्ष लता जाँहा सहजिक वन।
- पुष्पफल बिना केहो ना मागे अन्यधन।।
- अनन्त कामधेनु जाँहा चरे वने वने।
- दुग्धमात्र देन केहो ना मागे अन्यधने।।”[1]
तथापि व्रजगोपियों के साथ रस आदि लीलापरायण तुम्हारा यह दृश्यमान् चरित अति विचित्र अति अद्भुत है।
श्रीकृष्ण कह रहे हैं- हे लीलाशुक, दृश्यमान् ऐश्वर्यविशिष्ट विष्णु, वामन, अजित आदि कितने-कितने अवतार है; तुम उनका भजन क्यों नहीं करते? इसके उत्तर में श्रीलीलाशुक बोले- ‘परिचार परम्पराः सुरेंद्राः’ अर्थात् इन्द्र आदि देवतागण तुम्हारी परिचार- परंपरा या तुम्हारे ही परिचायक हैं। विष्णु वामन आदि के चरित युद्ध आदि से युक्त हैं, पालनक्रीड़ा से युक्त हैं, इसलिए अद्भुत हैं, यह अवश्य ही स्वीकार्य है; फिर भी इन सबके चरित में माधुर्य कहाँ है? तुम्हारा चरित पूरी मात्रा में ऐश्वर्य– माधुर्य मय है, अतएव अति विचित्र अति उत्तम है। ‘मधुरैश्वर्य – माधुर्य कृपादिभाण्डार। योगमाया दासी जाँहा रासादि लीला सार।।’[2]
श्रीकृष्ण कह रहे हैं- गर्भोदशायीपुरुष भी युद्धादि- विमुख हैं, तुम उन्हीं को भजो। यह सुनकर नीचे की ओर नेत्र चलाकर बोले- “तनयस्तामरसासनः” उनके नाभिकमल से उत्पन्न सन्तान हैं सृष्टिकर्ता ब्रह्मा, इसलिए गर्भोदशायी की सृष्टि आदि लीलायें अद्भुत ही हैं, सही है, किन्तु उन-उन स्थलों के प्रति मेरा चित्त आकृष्ट नहीं होता। तुम्हारा यह मधुररसमय चरित ही सर्वोत्तम है।
श्रीकृष्ण- अच्छा, समझा। तुम मधुररसाश्रयी भक्त हो। तो तुम परमव्योमाधीश श्रीलक्ष्मीपति का भजन करो। यह सुनकर श्रीलीलाशुक ऊपर की ओर, भ्रूसञ्चालन कर बोले- ‘विलासिनी श्रीः’ परव्यम में केवलमात्र कमला ही विलासिनी हैं। मैं उस सर्वोद्भुततर चरित्र की अपेक्षा इस मधुररसमय अति सर्वोद्भुततम व्रजचरित को ही सर्वोत्तम समझता हूँ, कारण उद्धव जी ने कहा है-
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