श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
‘आस्वादबिन्दु’ टीका श्रीकृष्ण की बात सुनकर श्रीलीलाशुक ने प्रतिवाद करते हुए कहा- तुम्हारा मुख-मण्डल निरुपम है, पद्म को लेकर एक बात कहने से श्रीमुख की उपमा हो सकती है क्या? श्रीकृष्ण बोले- क्यों, इसमें दोष क्या है? श्रीलीलाशुक ने उत्तर दिया- दोष अनेक हैं। पद्म की बात पीछे करूँगा, पहले चंद्र की और थोड़ी बात कर लूँ। पूर्णचंद्र प्रत्येक तिथि को क्षय प्राप्त करते-करते अमावस्या तक पहुँचता है, तब उसकी जो अवस्था होती है, वह बताने योग्य नहीं। अमावस्या को चंद्र का सम्पूर्ण क्षय हो जाता है- वह श्रीकृष्ण के लिए अमंगल के कारण वाक्य के भी अयोग्य है। चंद्रमा का कलंक दोष ही देखा, चंद्र सुधाकर है, दिन के तपन ताप को हरता है, जगत् का आनन्ददायक है- इन बहुत से गुणों के होते एक दोष को कोई ग्रहण नहीं करता- इन उक्तियों से श्रीकृष्ण ने चंद्रमा के साथ अपने वदन की उपमा देने के लिए कहा। किन्तु श्रीलीलाशुक ने एक ही जबरदस्त दोष की बात कही- चंद्रमा प्रत्येक तिथि को ह्रास पाते-पाते अमावस्या को पूरी तरह क्षय हो जाता है। दूसरे शब्दों में श्रीकृष्ण के वदनचंद्र की शोभा, कान्ति, माधुर्य-प्रतिदिन की तो बात ही क्या, अति मुहूर्त नव-नवायमान हैं। श्रीमद्भागवत के वचन हैं- ‘अनुसवाभिनवम्’। श्रीकृष्णमाधुर्य प्रवाह के जल की तरह प्रतिक्षण अभिनव है। इसलिए चंद्र के साथ श्रीकृष्ण वदन की तुलना किसी प्रकार भी नहीं हो सकती। श्रीलीलाशुक बोले- जब चंद्र की ही यह अवस्था है, तब चंद्र के पदाघात से तिरस्कृत पद्म की तो बात ही क्या करूँ। अर्थात् चंद्रमा के उगते ही कमल संकुचित या निष्प्रभ हो जाता है। इसलिए उसके साथ तुम्हारे श्रीमुखमण्डल की समता किसी भी प्रकार नहीं हो सकतीं। श्रीकृष्ण कह रहे हैं- समता न सही, किन्तु वर्णनीय तो हो सकता है। अतएव किसी प्रकार भी चंद्र के साथ उपमा देकर मेरे मुख का वर्णन क्यों नहीं करते? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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