श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
श्रीकृष्ण की बात सुनकर लीलाशुक कुछ देर नीरव रहे, फिर बोले- हाँ, समझ गया, तुम्हारे इस व्रजविलासी रूप के अतिरिक्त अन्यान्य जो रूप हैं, लगता है तुम उन रूपों के साथ उपमा देकर वर्णन करने को कह रहे हो। यह फिर भी हो सकता है, किन्तु हे स्वामिन्। तुम्हारे इस मुख की तुलना किसी प्रकार भी नहीं हो सकती। तुम्हारे- जैसा सौन्दर्य माधुर्य स्वयं वैकुण्ठनाथ के पास भी नहीं है। इसलिए मैं वर्णन करने में असमर्थ हूँ। श्रीकृष्ण बोले- अरे ! तुम क्या क्षिप्त (पागल) हो गये हो। क्या कह रहे हो, वैकुण्ठपति का मुख क्या इस मुख से भिन्न है? यदि उनके मुख के साथ तुलना हो सकती है, तो इस मुख के साथ पद्म की तुलना करने में क्या बाधा है? इन दोनों मुखों में पार्थक्य (अन्तर) की कोई बात है क्या? लीलाशुक ने यह सुनकर बहुत सी बातें सोचकर मुंह नीचा कर हाथ रगड़ते हुए कहा- हाँ प्रभो, पार्थक्य के अनेक कारण हैं। पर मैं एक हेतु की बात ही कहता हूँ। तुम्हारे इस श्रीमुखमण्डल पर त्रिभुवन-कमनीय वेणु है। यह अपूर्व अमृत और कहीं नहीं। अब बताओ, मैं अन्यान्य मुखों को और तुम्हारे इस मुख को एक कैसे समझूँ? और चंद्र या कमल के साथ उपमा देकर कैसे इस श्रीमुखशोभा का वर्णन करूँ? “त्रिजगन्मानसाकर्षिमुरलीकलकूजितः” वेणुमाधुरी श्रीव्रजेन्द्रनन्दन का एक असाधारण गुण है। इस गुण को लेकर त्रिभुवन पागल है। पागल बनाने वाला वंशी का स्वर केवल वृन्दावन में ही बजता है। इस माधुर्य से निखिल विश्व मधुमय हो जाता है। श्रीलीलाशुक ने इसी मुरलीनाद को श्रीकृष्ण के मुखपंकज का मकरन्द कहा है- ‘मुरली निनादमकरन्दनिर्भरम्’[1] यह मकरन्द स्थावर- जंगम सभी मत्त कर डालता है। “अस्पन्दनं गतिमतां पुलकस्तरुणाम्” (भागवत) वंशी के गान से अचल सचल हो जाता है, सचल अचल। गिरिपथ गल जाता है। जब स्थावर-जंगम् की यह अवस्था है, तब नर-नारी की बात कौन कहे?
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्लोक 6
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