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- “गोप्यः किमाचरदयं कुशलं स्म वेणु-
- र्दामोदराधर सुधामपि गोपिकानाम्।
- भुङ्क्ते स्वयं यदवशिष्टरसं ह्रदिन्यो
- हृष्यत्त्वचोऽश्रु मुमुचुस्तरवो यथार्याः।।”[1]
किसी गोपसुदरी ने कहा- ‘सखियों ! इस वेणु ने क्या सुकृति की थी जिसके फलस्वरूप यह एकमात्र गोपियों की भोग्य श्रीकृष्ण की अधरसुधा यथेष्ट रूप से भोग रहा है। आर्यगण अपनी पुण्यकीर्ति सन्तान का सौभाग्य देखकर आनन्द व्यक्त करते हैं, उसी प्रकार इसे अपने रस से पोषित करने वाली हृदिनियाँ (नदियाँ) कमलों के रूप में अपना हर्ष (रोमाञ्च) व्यक्त कर रही हैं और वे वृक्ष भी (जिनके वंश में यह वेणु जन्मा है) इसका सौभाग्य देखकर अंकुरों के बहाने अपना पुलक तथा मधुधारा- वर्षण के बहान अपने आनन्द-अश्रु बहा रहे हैं।’ श्रीमन्महाप्रभु ने अपने प्रलाप में इस श्लोक की व्याख्या का आस्वादन किया है-
- “गोपीगण ! कहो सबे करिया विचारे।
- कोन् तीर्थे कोन् तप, कोन सिद्ध मन्त्र जप,
- एइ वेणु कैलो जन्मान्तरे।।
- हेनो कृष्णाधर सुधा, जे कैलो अमृत मुधा,
- जार आशाय गोपी धरे प्राण।
- जार धन ना कहे तारे, पान करे बलात्कारे,
- पिते तारे डाकिया जानाय।
- तार तपस्यार फल, देखो इहार भाग्यबल,
- इहार उच्छिष्ट महाजने खाय।।
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