सुबोधनी
अतो ममाभीष्टं स एव सम्पादयिष्यतीति सहर्षमाह- तन्मामकं जीवितं सर्वोत्कर्षेण वर्तते। सर्वोत्कर्षतां विशिनष्टि- न केवलमरुन्धत्या अपि तु जगत्त्रयमनोहरम्। तत् कथम्- उद्गतं यौवनं यत्र। अतस्तरलं गतप्रायं यच्छैशवं तेनालंकृतम्। तच्चेष्टामाह- प्रियेक्षणहर्षेण व्याप्ते लोचने यत्र। अतएव मदनो मुग्धो यस्मात्तादृशहास एवामृतं यस्मिन्। अतः प्रतिक्षणविलोभनम्। पुनः सनर्माह- प्रेम्ना पीतं वंश्या मुखं येन।।88।।
सारंगरंगदा
पुनरन्तर्लालसया सहर्षमाह- तदिदं मामकं जीवितं जयति सर्वोत्कर्षेण वर्तते। सर्वोत्कर्ष- तामेवाह विशेषणेः। कीदृशम्- न केवलमरुन्धत्या अपि तु जगत्त्रयमनोहरम्। उच्छ्वसितं यौवनं तत्पूर्वावस्था यस्मिन्। तथा, तरलं गत्वरं किञ्चिदवशिष्टं यच्छैशवं तेनालंकृतम्। विशेषणाभ्यां किशोरमित्यर्थः। अतः स्मरमदैश्छुरिते व्याप्ते लोचने यस्य। मदनो मुग्धो यस्मात् तादृशो हास एवामृतं तद् यस्मिन्। अतः प्रतिक्षणविलोभनम्। कर्तरि ल्युट्। प्रणयेन पीतं चुम्बितं बंश्याः सुभगाया मुखं येन।।88।।
‘आस्वादबिन्दु’ टीका
श्रील कविराज गोस्वामिपाद कहते हैं- श्री लीलाशुक पुनः लालसाक्रान्त चित्त से इस श्लोक में सहर्ष कहते हैं- मेरे जीवन के जीवन श्रीकृष्ण की जय हो। ये केवल अरुन्धती का ही चित्त- विनोदन करते हैं सो नहीं; ये अखिल विश्व के चित्त-रञ्जन हैं। ये उच्छवसित यौवन की पूर्वावस्था प्राप्त अर्थात् नवकिशोर हैं- ये किञ्चिदवशिष्ट शैशव अर्थात् नवकिशोर हैं। इन दो विशेषणों से कैशोर वयस ही ध्वनित हुई हैं। कन्दर्पपद से इनके नयन विस्फुरित हैं, अर्थात् नेत्रों में कन्दर्पमद प्रकट हुआ है। इनके हास्य से स्वयं मदन भी मुग्ध होते हैं। ऐसे हास्यरूपी अमृत से युक्त हैं, इसलिए ये प्रतिमुहूर्त लोभनीय हैं। इनका श्रीमुख सौभाग्यशाली वंशी को प्रणयवश चुम्बन करता है। वंशी का ऐसा सौभाग्य कि श्रीकृष्ण अति प्रणय से भरकर उसे निविड़ भाव से चुम्बन करते रहते हैं।
इस श्लोक में श्रीकृष्ण के कैशोर, सम्ममद – विहार – विलासी लोचन, उनके मदनमोहन हास्यामृत, प्रतिक्षण लोभनीच रूप एवं प्रणयपीत वंशीयुक्त मुख के प्रति- और वंशी के भाग्य के प्रति सहृदय साधकों की दृष्टि आकर्षित की गई है। वेणुगीत में गोपियों ने ही वेणु के भाग्य की प्रशंसा की है-
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