श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
इस विश्व में अनेक रमणीय पदार्थ हैं, किन्तु मेरे लिए यही एक वस्तु (कालिन्दी तट विहारी श्रीकृष्ण) प्रार्थनीय है। धीर पुरुष ऐसे निर्णय को ‘अभिमान’ आख्या देते हैं। व्रजदेवियाँ इस अभिमान को अतिशय अभिनन्दन करती हैं-
पूर्वरागवती कोई व्रजबाला श्रीकृष्ण को नहीं पा सकी। वह दैन्यवश स्वयं को श्रीकृष्ण प्राप्ति के अयोग्य समझती है और अपने आनन्द की प्राप्ति का उपाय निश्चित कर भाद्रमास की चतुर्थी के चंद्रमा को कलंकदायी मानकर कहती हैं- ‘हे ताराभिसारक ! हे चतुर्थीनिशाशशंक ! हे कामाम्बुपरिवर्द्धन ! हे देव ! तुम्हें आर्घ्य प्रदान करती हूँ, मिथ्या अपवाद (कलंक) के वचनों द्वारा भी सही, उस युवक के साथ मेरा अभिमान सिद्ध हो – अर्थात् मैं कृष्णकान्ता हूँ यह अभिमान सिद्ध हो।’ श्रील भट्ट गोस्वामिपाद कहते हैं- अब श्रीलीलाशुक श्रीकृष्णमुखाम्बुज साक्षात की तरह देखकर बोले- इन दृश्यमान् मुरारि श्रीकृष्ण का मुखाम्बुज मेरा मानस बार-बार चुम्बन करता है, अर्थात् अपने अधिकार में ले रहा है। अथवा उससे संलग्न होकर चुम्बन सुख अनुभव कर रहा है। गोपीभाव का तादात्म्य पाने से श्रीलीलाशुक की ऐसी उक्ति है। उनका कैसा मुखाम्बुज है? “आताम्रविलोचन- श्रीसम्भाविताशेषविनम्रगर्वम्”- जो सभी प्रकार से अरुण नयनों की कान्ति से अशेष विनम्र भक्तों का गर्व सम्पादित कर रहे हैं। और कैसा? जिस मुखाम्बुज पर मधुर अधर ओष्ठ विराज रहे हैं। अथवा सभी मधुर वस्तुओं की शोभा को अधरीकृत या निम्नीकृत करती हैं जिन ओष्ठों की शोभा, वही ओष्ठ जिस मुखाम्बुज पर सुशोभित हैं। श्रील चैतन्यदास गोस्वामिपाद कहते हैं- श्रीलीलाशुक इस श्लोक में श्रीकृष्ण के दर्शनान्द- आवेश में उद्घाटित मनोगत भाव का रसोद्गार कर रहे हैं। मुरारि श्रीकृष्ण का यह मुखाम्बुज मेरा मानस बार-बार चुम्बन करता है। उसका कारण है, इस मुखाम्बुज पर मधुर अधर ओष्ठ शोभा पा रहे हैं। इस कार्य में प्रवृत्ति के वे ही कारण है, तभी कहा है- उनके अनुरागयुक्त नेत्रों की जो शोभा है, उससे जो अशेष नम्रजनों या भक्तों का अभिमान बढ़ाते हैं।।85।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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