श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
‘मथुरावासी भक्त श्रीकृष्ण- बलदेव का रूपमाधुर्य मानो नेत्रों से पान करने लगे, जिह्वा से लेहन करने (चाटने) लगे, नासिका द्वारा घ्राण लेने (सूँघने) लगे और भुजाओं से आलिंगन करने लगे।’ इसी प्रकार लीलाशुक नयनों से श्रीकृष्ण के मुखकमल की रूपमाधुरी पान कर इसका मानस द्वारा आस्वादन कर रहे हैं। श्रीलीलाशुक अपने भाव के अनुसार कहते हैं- श्रीकृष्ण की वह माधुरी कैसी है? जिस मुखकमल पर (में) मधुर अधर-ओष्ठद्वय विद्यमान हैं, वैसा मुखाम्बुज है। फिर ईषद् अरुणवर्ण नेत्रों की शोभासम्पत्ति अर्थात् कृपाकटाक्ष आदि सम्पदा है। इस संपदा ज्वारा जो अशेष प्रणत भक्तों का और अनुकूल व्रजवधुओं का सौभाग्यगर्व (गौरव) बढ़ा रहे हैं। भगवान् हैं गर्वहारी; आश्रित जन का मायिक देह- दैहिकादि का गर्व अभिमान दूर किया करते हैं, किन्तु भगवद्दास होने का अभिमान या स्वरूप का अभिमान दृढ़ करते हैं। उसी स्वरूप-अभिमान को लेकर भक्त भगवान् के सौन्दर्य माधुर्य का आस्वादन कर सौभाग्यगर्व में प्रमत्त रहते हैं। इसलिए भगवद् दास अभिमान वरणीय है। यथा इतिहास – समुच्चय में-
‘सहस्र – सहस्र जन्मों के सौभाग्य के फलस्वरूप जिनमें यह अभिमान जगता है कि मैं वासुदेव का दास हूँ, वे सभी लोगों का उद्धार करते हैं।’ श्रीमज्जीवगोस्वामिपाद ने भक्तिसंदर्भ में यह श्लोक उद्धृत कर लिखा है- “अस्तु तावद्भजनप्रयासः केवलतादृशत्वाभिमानेनापि सिद्धि र्भवति”[2]- यत्नपूर्वक भजन करने की बात दूर, ‘मैं भगवान् का दास हूँ’ केवल इसी अभिमान से ही सिद्धि अर्थात् प्रेमभक्ति मिल जाती है। श्रीमद् रूप गोस्वामिपाद ने लिखा है-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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