श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
यह श्रीकृष्णनामधारी कोई अनिर्वचनीय वस्तु मेरा जीवन (स्वरूप) है। ये अपने मुख-इन्दु के उदय से मेरा तृष्णा सिन्धु दुगुना कर रहे हैं। सिन्धु में कितने ही नद नदियों का जल प्रविष्ट होता है, सिन्धु कभी भी वेलाभूमि (तट) का अतिक्रमण नहीं करता, किन्तु आकाश में पूर्णचंद्र का उदय होने पर वह उच्छलित होकर वेलाभूमि प्लावित कर देता है। इसी प्रकार प्रेमिक श्रीलीलाशुक का हृदय प्राकृत तृष्णा से शून्य होते हुए भी श्रीकृष्ण का मुखचंद्र दर्शन कर उनका तृष्णासागर विवर्धित या दुगुना उच्छलित हो उठा है। कैसा मुखचंद्र? जिसे देखकर आकाश में चंद्र की शोभा व्यर्थ हो गई है। “देखिया ओ मुख- छान्द, कान्दे पुणमिक चाँद, लाज घरे भेजाइया आगुनि।” (बलरामदास) श्रीकृष्ण के मुखचंद्र के उदय से व्यर्थीकृत चंद्रमा की शोभा फिर बढ़ रही है। अर्थात् श्रीकृष्ण अपनी मुखचंद्रकान्ति द्वारार चंद्र की शोभा को व्यर्थ कर पुनः उस व्यर्थीकृत शोभा को पुष्ट कर रहे हैं। अथवा श्रीकृष्ण के दर्शन कर व्रजदेवियों की उच्छलित शोभा को देखकर श्रीलीलाशुक कहते हैं- श्रीकृष्ण के अदर्शन से व्रजदेवियों की जो शोभा म्लान हो गई थी, अब उनके दर्शन कर वही शोभा सम्पुष्ट हो उठी। कैसा मुखचंद्र? चंद्र से भी अधिक सुशीतल। श्रील भट्ट गोस्वामिपाद कहते हैं- अति मधुर, विलासप्रसक्त (युक्त) प्रतिपद (सर्वत्र) परमानन्दरसवर्षि, चक्षुओं द्वारा साक्षात् पेपीयमान (आस्वादन किए जा रहे)- इस रूप में परिस्फुरित श्रीकृष्णचंद्र के दर्शन से तृष्णा शान्त होने की बात तो दूर रही, वह कोटि गुना बढ़ गई हैं। इस श्लोक में श्रीलीलाशुक यही व्यक्त कर रहे हैं। जिनका नाम ‘कृष्ण’ है, वे मेरे जीवनस्वरूप हैं- की अनिर्वचनीय तत्त्व हैं। ये जीवन से भी अधिक प्रिय, अति प्रियतम हैं। इनकी श्रीचरण नखच्छवि ऐसी है कि उस पर कोटि जीवन निछावर हो जाएं। ‘कृष’ धातु आकर्षण के लिए, दूसरा वर्ण निवृत्ति या आनन्दवाचक ‘ण’- इस प्रकार ‘कृष्ण’ शब्द निष्पन्न हुआ है। जो आनन्द देकर सबका चित्त अपनी ओर आकर्षित करते हैं, ऐसे कोई परमवृहत्तम आनन्द ही ‘कृष्ण’ शब्दवाच्य हैं। आनन्द सभी का काम्य है; मायामुग्ध जीव इस विश्व में तुच्छ पार्थिव क्षणिक आनन्द-आभास से विमोहित होकर अनादि काल से संसार दुःख भोगते घूम रहे हैं। इसी दुःख के विनाश के लिए और परमानन्द की प्राप्ति के लिए ही समस्त श्रृतिशास्त्र और महाजनगण विविध साधनाओं का उल्लेख करते हैं। परमानन्दघन श्रीकृष्ण ही निखिल साधना के मूल लक्ष्य हैं। वे ही ज्ञानी के निकट ब्रह्मरूप में, योगी के निकट परमात्मा रूप में, और भक्त के निकट भगवान रूप में प्रकाशित होते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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